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________________ 168... सज्जन तप प्रवेशिका भोजन का त्याग हो वे सभी तप कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त शेष तप मुग्ध लोक में विशेष रूप से प्रचलित होने पर भी कल्याणकारक नहीं है। मुग्ध प्राणी शुरू से ही मोक्षार्थ तप में प्रवृत्ति नहीं करते हैं, अपितु लौकिक उपलब्धियों हेतु तप करते हैं जबकि बुद्धिमान आत्माएँ मोक्ष प्राप्ति के लिए आगमोक्त विधि से ही तप करती हैं। यहाँ प्रश्न होता है कि मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य से किया गया तपश्चरण ही आत्मविशुद्धि का हेतु बनता है, शेष लौकिक फल के जनक होते हैं तब उस प्रकार के तप क्यों किये जाएं ? भौतिक सुख की उपलब्धि से संसार - चक्र का अन्त नहीं होता, जबकि तप साधना संसार चक्र को विखण्डित करने के लिए की जाती है, अतः लोक समृद्धि के निमित्त तप नहीं किये जाने चाहिए? इसका समाधान देते हुए बताया गया है कि सर्वाङ्ग सुन्दर, निरुजशिखा, आयतिजनक आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के तप भले ही दैहिक फल की अपेक्षा से किये जाते हों, किन्तु ये तप जिनशासन में नव प्रविष्ट जीवों की योग्यता के अनुसार मोक्षमार्ग स्वीकार के कारण हैं, क्योंकि कई जीव ऐसे भी हो सकते हैं जो प्रारम्भ में संसार - सुख की इच्छा से जिन धर्म में प्रवृत्त होते हों; किन्तु बाद में लौकिक आकांक्षाओं से रहित मोक्षमार्ग की अभिरुचि वाले बन जाते हैं। इसलिए मुग्ध प्राणियों के लिए फलाकांक्षा तप मोक्ष प्राप्ति में पारम्परिक हेतुभूत होने से निरर्थक नहीं है। कुशल अनुष्ठानों में विघ्न न आये, तद्हेतु साधर्मिक देवताओं की भी तप रूप आराधना की जाती है। कुछ तप कषायादि के निरोध हेतु किये जाते हैं जिससे तपस्वी साधक मोक्ष मार्ग के अनुकूल भाव पाकर आप्त उपदिष्ट चारित्र प्राप्त कर लेते हैं। कहने का भावार्थ यह है कि अध्यात्म जगत में सर्व प्रकार के तपों का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से एक विशिष्ट महत्त्व है। कुछ तपश्चर्याएँ मोक्ष की अनन्तर कारण होती हैं तो कुछ परम्परा से मोक्ष दिलवाती हैं। 1. सर्वाङ्गसुन्दर तप इस तप के नाम से ही ज्ञात होता है कि यह तप सर्वाङ्गसुन्दर शरीर की प्राप्ति के लिए किया जाता है, क्योंकि शरीर के सर्वाङ्ग पूर्ण होने पर ही धर्म की प्राप्ति सुलभ होती है। श्रावक को मार्गानुसारी के 35 गुणों से युक्त होना चाहिए, उनमें श्रावक का ‘सर्वाङ्गसुन्दर होना' भी एक गुण बतलाया गया है। इस तप को
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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