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166...सज्जन तप प्रवेशिका
ॐ हाँ नमो किरियाणं ॐ ह्रीं नमो तवस्स
हौँ नमो गोयमस्स हाँ नमो जिणाणं
ह्रौँ नमो संयमस्स 18. | ॐ ही नमो अभिनव नाणस्स
| ॐ ह्रीँ नमो सुयस्स | 20. | ॐ ह्रीं नमो तित्थस्स 52. अष्टकर्मोत्तर-प्रकृति तप ___ यह कर्मसूदन तप का ही बृहद् प्रकार है। सामान्यतः कर्मसूदन तप आठ कर्मों को क्षय करने के उद्देश्य से किया जाता है जबकि प्रस्तुत तप में आठ कर्मों की 148 उत्तर प्रकृतियों को आत्म प्रदेशों से पृथक करने का भाव निहित है। स्वरूपतया इस तप की आराधना कर्म रूपी वृक्ष की शाखा, प्रशाखा एवं पत्तियाँ आदि सर्वांश को विनष्ट करने के प्रयोजन से की जाती है। इस तप के फल से शाश्वत सुख का साक्षात्कार होता है।
यह आगाढ़ तप साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए आचरणीय है। विधिमार्गप्रपानुसार इसकी निम्न विधि है - ___ 1. नाणावरणिज्जस्स उत्तर पयडीओ पंच 2. दंसणावरणिज्जस्स नव 3. वेयणीयस्स दो 4. मोहणीयस्स अट्ठावीसं 5. आउस्स चत्तारि 6. नामस्स तेणउई 7. गोयस्स दो 8. अंतरायस्स पंच एवं अडयाल-सएण उववासाणं अट्ठ-कम्म उत्तरपयडी तवो।।
विधिमार्गप्रपा, पृ. 27 आठ कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं
1. ज्ञानावरणी कर्म की पाँच 2. दर्शनावरणीय कर्म की नौ 3. वेदनीय कर्म की दो 4. मोहनीय कर्म की अट्ठाईस 5. आयुष्य कर्म की चार 6. नामकर्म की तिरानबे 7. गोत्रकर्म की दो और 8. अन्तराय कर्म की पाँच - कुल 148 उत्तर प्रकृतियाँ हैं।
इस तप में एक सौ अड़तालीस उपवास निरन्तर अथवा एकान्तर एकाशने के पारणे से करें। इस प्रकार यह तप लगभग पाँच महीने अथवा दस महीने में पूर्ण होता है।