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अन्तर्नाद
मनुष्य जीवन की विविध साधनाओं में तप का अत्यंत महत्त्व है। देहधारी प्राणियों में तप की साधना केवल मनुष्य ही कर सकता है क्योंकि वह शुभ कर्म करने में स्वतन्त्र है तथा उसकी प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक क्षमता भी उस स्तर की है जबकि अन्य गति के जीवों को न तो उस तरह का वातावरण प्राप्त होता है और न ही वैसी शारीरिक क्षमता एवं समझ शक्ति होती है।
आज का व्यक्ति चार्वाक दर्शन का सिद्धान्त- यावत् जीवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीबेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः। अर्थात जब तक जीयो सुख से जीयो, ऋण लेकर भी घी पीओ, एक दिन यह शरीर राख के समान हो जाएगा, इस भ्रामक मान्यता से ग्रस्त है। तपश्चरण शरीर, मन एवं आत्मा तीनों के लिए अनिवार्य है। वर्तमान विज्ञान निरोग शरीर के लिए तपश्चर्या को आवश्यक मानता है।
गरम पानी, उबली हुई सब्जी, शक्कर, नमक, घी आदि पर नियंत्रण डॉक्टरों के अनुसार आवश्यक है और यही तथ्य हमारे पूर्वाचार्यों एवं गीतार्थ गुरुओं ने कहे हैं परन्तु आज विज्ञान और डॉक्टर ही हमारे लिए भगवान तुल्य हैं। यदि कोई जिनवाणी के प्रति श्रद्धा एवं विश्वास रखते हुए तदनुसार आचरण करने लगे तो उसे डॉक्टरों के पास जाने की आवश्यकता सामान्यतया नहीं पड़ेगी। इस पंचम आरे में तो तप साधना भाव शुद्धि का भी श्रेष्ठ उपाय है। इसलिए हमें छोटे-बड़े विविध तपों का आचरण करते हुए सतत कर्म निर्जरा करते रहना चाहिए। ___ विदुषी आर्या सौम्यगुणाजी ने इस पुस्तिका में भगवान आदिनाथ के युग से लेकर अब तक प्राप्त समग्र तपों का प्रामाणिक वर्णन प्रस्तुत किया है और इस विषय में लगभग यह प्रथम शोध कार्य है। इस तरह का अद्भुत कार्य कहीं भी उपलब्ध हो, ऐसा पढ़ने में नहीं आया है। इसमें तप विधियों के साथ-साथ तपों का वर्गीकरण, तप सारणी, तप उद्देश्य आदि का हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है। इस कारण सामान्य वर्ग के लिए भी यह पुस्तक सदैव उपयोगी सिद्ध होगी।