SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62...सज्जन तप प्रवेशिका एकाकार करने में कारणभूत है, इसलिए इसे आस्रव कहा जाता है। आस्रवपुण्य और पाप, शुभ और अशुभ द्विविध रूप होता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए दोनों प्रकार के आस्रवों का निरोध होना आवश्यक है। योगशुद्धि तप के द्वारा आस्रव बाधित होते है और आस्रव निरोध से आत्मा अयोगी अवस्था (मोक्षपद) को प्राप्त करती है। यह तप मन, वचन और काया की योग शुद्धि के उद्देश्य से किया जाता है। इसे साधु एवं श्रावक दोनों के लिए अवश्यकरणीय बतलाया गया है। इस तप-विधि का सामान्य स्वरूप इस प्रकार है विधि योगे प्रत्येकमरसमाचाम्लं वाप्युपोषितं । एव नवदिनैर्योग, शुद्धिः संपूर्यते ततः ।। आचारदिनकर, पृ. 337 इस तप में मनोयोग के लिए पहले दिन नीवि, दूसरे दिन आयंबिल एवं तीसरे दिन उपवास करें। इसी प्रकार वचन एवं काया के योग के लिए भी तीनतीन दिन यह तप किया जाता है। इस प्रकार नौ दिन में यह तप पूर्ण होता है। • पंचाशकप्रकरण, प्रवचनसारोद्धार आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी इस तप का विधिवत उल्लेख किया गया है। इससे यह तप प्रामाणिक एवं आगम सम्मत सिद्ध होता है। उद्यापन इस तप की महिमा वर्द्धन के लिए जब तप पूर्ण हो जाये तब जिनेश्वर परमात्मा के आगे छह विगयों से युक्त पदार्थ चढ़ाएं तथा साधुओं को भी वही दान दें। ज्ञानपूजा और श्रुतभक्ति अवश्य करें। जैन प्रबोधानुसार उद्यापन में अष्टमंगल की रचना भी अवश्य करें। -- • जीतव्यवहार के अनुसार योगशुद्धि तप के दिनों में प्रतिदिन निम्न क्रियाएँ करनी चाहिए - क्रम पहली ओली दूसरी ओली तीसरी ओली जाप मनोयोग तपसे मनः वचोयोग तपसे नमः काययोग तपसे नमः साथिया खमा. कायो. माला 3 333 33 333 3 2220
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy