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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ...119
समान वाय नाभि के गर्त में रहती है। इसे पाचन शक्ति के लिए आवश्यक माना गया है। समान शब्द अनेकार्थक है- मुख्य तौर पर तुल्य, सदृश, एक समान, बराबर आकार इन अर्थों में प्रयुक्त होता है। यहाँ समान शब्द का प्रयोग शरीरस्थ एक वायु के रूप में हुआ है। स्वरूपत: इस मुद्रा में पाँचों अंगुलियों का संयोग होता है इस दृष्टि से भी इसे समान वायु कहा गया प्रतीत होता है। शब्द रचना के अनुसार इसमें सम् उपसर्ग और अन् + अण् प्रत्यय का योग हुआ है। सम् उपसर्ग समानार्थक है क्योंकि इस मुद्रा के वक्त पाँचों अंगुलियों के पौरवें समान रूप से जुड़ते हैं। इस मुद्रा से समान वायु को स्वस्थान में संतुलित रखते हुए उससे संभवित दोषों का परिहार किया जाता है। विधि ___स्वयं के लिए आरामदायक आसन में बैठ जायें। तदनन्तर दोनों हाथों को सामने की ओर सीधा करते हुए एवं पाँचों अंगुलियों के अग्रभाग को आसमान की ओर रखते हुए परस्पर संयोजित करना अथवा मिलाना समान मुद्रा कहलाती है।
निर्देश- इस मुद्रा के लिए भी आवश्यक सूचनाएँ पूर्ववत समझें। सुपरिणाम __इस मुद्रा में पाँचों अंगुलियों का संयोजन होता है इसलिए इसका दूसरा नाम समन्वय मुद्रा भी है।
• समान मुद्रा की विशेषता यह है कि इसके अभ्यास से समान वायु व्यवस्थित रूप से काम करता है। समान वायु की सुनियोजित गतिविधि से शेष वायु भी सम रहते हैं क्योंकि समान वायु दूसरे वायुओं के साथ सम्पूर्ण शरीर में रहता है। . इस मुद्राभ्यास में पांचों तत्त्वों का संयोजन होने से पांचों तत्त्व संतुलित रहते हैं तथा व्यक्ति तत्सम्बन्धी रोगों से मुक्त रहता है।
• अध्यात्म स्तर पर इस मुद्रा के द्वारा सभी तत्त्वों का संतुलन होने से समन्वयता, सौहार्द्रता, परदुःखकारता, उदारता के भाव विकसित होते हैं।
• शरीरस्थ सभी वायु साम्यभाव में रहने से अनिष्ट (मनोदैहिक व्याधियाँ एवं आसुरी शक्तियों के उपद्रवों) का निवारण होता है और सात्त्विक विचारों का अभ्युदय होता है।