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सामान्य अभ्यास साध्य यौगिक मुद्राओं का स्वरूप... ...47
इस मुद्रा का दूसरा नाम नासिकाग्र दृष्टि है क्योंकि इस प्रक्रिया में निरन्तर नासिका के अग्रभाग को निहारा जाता है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अगोचरी मुद्रा अब तक ज्ञात योग की सर्वाधिक प्राचीन क्रियाओं में से एक है। इसका प्रमाण मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त सिन्धु घाटी की सभ्यता के भग्नावेषों में मिलता है। यह सभ्यता हजारों वर्ष पूर्व अस्तित्वमान थी। विख्यात पुरातत्त्ववेत्ता सर जॉन मार्शल, जिनकी देखरेख में मोहनजोदड़ों का अधिकांश खुदाई कार्य सम्पन्न हुआ। वे कहते हैं कि
"उपरोक्त दर्शाया गया चित्र योग करते हुए किसी व्यक्ति का द्योतक है, जिसकी पलकें लगभग आधी बन्द हैं तथा आँखे नीचे की ओर नासिका के अग्रभाग पर टिकी हुई है।"
इसका अर्थ हुआ कि उस समय शिल्पकारों एवं जनसामान्य को भी इस अभ्यास के महत्त्व का ज्ञान था। तभी तो उन्होंने उसे पत्थर पर उत्कीर्ण कर भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखा।11
प्रस्तुत क्रम में यह चर्चा करना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि साधारण तौर पर इस अभ्यास में आपको कोई विशिष्टता नजर नहीं आयेगी, किन्तु हकीकत में ऐसा नहीं है। यदि दीर्घकाल तक इसका सुविधि अभ्यास किया जाये तो यह बाह्य राग-रंग में फंसे हुए एवं झूठे प्रपंचों में उलझे हुए मनस्तर को अन्तर्मुखी बनाती है साथ ही ध्यान के अवतरण में सहायक बनती है।
गीता में नासिका के अग्रभाग को निहारने पर बल देते हुए उससे मन शुद्ध-शान्त एवं स्थिर होता है ऐसा फल वर्णन भी किया गया है।12 इस चर्चा का सारभूत तत्त्व यही है कि अगोचरी मुद्रा आभ्यन्तर जगत के प्रत्येक सोपानों का संस्पर्श कराने में सक्षम है।
विधि
. इस मुद्राभ्यास हेतु निर्दिष्ट किसी भी आसन में बैठे।
. फिर आँखें बन्द कर लें और सारे शरीर को शान्त, शिथिल एवं स्थिर कर दें।
• तत्पश्चात आँखें खोल लें और नासिकाग्र पर दृष्टि को केन्द्रित करें अर्थात निरन्तर नासिकाग्र को निहारें।
• यदि आपकी दोनों आँखें नासिका के अग्रभाग पर टिकी होंगी तो नासिका की दोहरी रूपरेखा दिखाई पड़ेगी। जिस स्थान पर दोनों एक-दूसरे से