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सामान्य अभ्यास साध्य यौगिक मुद्राओं का स्वरूप......45
कुंभक की स्थिति में ही सहस्रारचक्र (शिखा का मध्य-तालु का ऊपरी भाग) पर ध्यान करें अर्थात अपनी सजगता पूर्वक सहस्रार स्थान पर होने वाले प्रकम्पनों को देखें।
. संभावित अवधि तक कुंभक (श्वास रोककर रखें) करें।
• तदनन्तर नासारन्ध्रों से हाथ हटाकर धीरे-धीरे रेचक (श्वास को बाहर) करें।
• रेचक क्रिया के समय मूलबंध एवं वज्रोली मुद्रा को शिथिल कर दें। परन्तु हाथों को यथास्थान रखें। __ रेचक क्रिया के पश्चात किंचित विश्राम कर, पुनः शरीर को शिथिल करते हुए वर्णित क्रिया की पुनरावृत्ति करें।10 निर्देश 1. इस क्रियाभ्यास के दौरान चेतना को अधिकतम समय तक सहस्रारचक्र
पर केन्द्रित करने का प्रयास करें। 2. यदि अंतकुंभक करते हुए सम्पूर्ण आवृत्ति न कर सकें तो, प्रारंभ में कुछ
दिनों सहस्रारचक्र पर श्वसन क्रिया कर लें, धीरे-धीरे यह समस्या दूर
होती चली जायेगी। 3. अंतकुंभक का प्रबल प्रयत्न करें। अंतकुंभक की स्थिति जितनी अधिक
होगी मुद्राभ्यास की फलश्रुति उतनी ही अनुपात में होगी। 4. तनाव रहित अवस्था में जितनी देर संभव हो, कर सकते हैं। सुपरिणाम
• प्राचीन मुद्राओं में इस मुद्रा की परिगणना की जाती है इससे माना जा सकता है कि पूर्वकाल के ऋषि-महर्षियों द्वारा यह निश्चित रूप से समादृत एवं आचरित रही है।
• इस मुद्रा के द्वारा शारीरिक स्वस्थता, बौद्धिक निर्मलता, वैचारिक पवित्रता, चित्त एकाग्रता, निस्पृहता, निर्विकारता, अन्तर्मुखता, ब्रह्मस्वरूप तादात्म्यता, पापभीरुता, संकल्पदृढ़ता, उच्च मानसिकता, उदारता, हृदयविशालता, सहिष्णुता, सौहार्द्रता, परदुःखकातरता, सत्कर्मों में तत्परता, इन्द्रिय विषयों से पराङ्मुखता, आत्म सजगता, स्वलक्ष में जागरूकता, नैतिकता, निष्पक्षता, सक्रियता आदि अनेक गुणों का प्रादुर्भाव होता है।