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गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ ...393 संस्थान को सक्रिय एवं स्वस्थ बनाती है। शरीर को ओजस्वी, कान्तियुक्त, बलशाली तथा स्वभाव को शांत, शीतल एवं फुर्तीला बनाती है। • मणिपुर एवं मूलाधार चक्र को जाग्रत कर अग्नि, जल, फॉस्फोरस, रक्त, शर्करा, सोडियम आदि तत्त्वों का नियमन करती है। • एड्रिनल एवं कामग्रंथियों के स्राव को संतुलित कर संचार व्यवस्था, श्वसनप्रणाली, रक्त परिभ्रमण आदि को नियंत्रित, प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास तथा स्त्रित्व सम्बन्धी समस्याओं का निराकरण करती है। तृतीय प्रकार
तीसरे प्रकार में मध्यमा अग्रभाग पर स्पर्श करती है तथा अनामिका और कनिष्ठिका हथेली के भीतर मुड़ी रहती है। शेष वर्णन पूर्व मुद्रा के समान है।85
सुपरिणाम
मुशो फुशि-इन् मुद्रा-3 • यह मुद्रा वायु तत्त्व को प्रभावित करते हुए हृदय की रक्त अभिसंचरण क्रिया आदि का नियमन करती है। . अनाहत एवं विशुद्धि चक्र को जागृत कर शरीर के तापमान का नियंत्रण, देहस्थित वायु, कैल्शियम, फेफड़ें और हृदय का नियमन एवं शक्ति उत्पादन का कार्य करती है। • एक्यूप्रेशर पद्धति के अनुसार बालकों के सर्वांगीण विकास, स्नायुओं की ऐंठन, हिचकी, कमजोरी, थकान, सुस्ती आदि का निवारण करती है।