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गर्भधातु-वज्रधातु मण्डल सम्बन्धी मुद्राओं की विधियाँ ...367
एक्युप्रेशर विशेषज्ञों के अनुसार यह मुद्रा पित्ताशय, लीवर, प्राणवायु, बी. पी. आदि का संतुलन करती है।
चतुर्थ विधि
इस चौथे प्रकार में दायां हाथ बायें हाथ के ऊपर रहता है तथा अंगूठे 45° ऊपर उठे हुए और एक-दूसरे के अग्रभाग को स्पर्श करते हुए रहते हैं। 58
शेष वर्णन पूर्ववत ।
जी-इन् मुद्रा- 4
सुपरिणाम
वायु एवं आकाश तत्त्व का नियंत्रण कर यह मुद्रा विजातीय द्रव्यों का निष्कासन करती है। शरीर को तंदुरुस्त, बलशाली एवं सुदृढ़ बनाती है तथा छाती, फेफड़ें और हृदय सम्बन्धी रोगों का उपशमन करती है। • अनाहत एवं सहस्रार चक्र को प्रभावित कर यह मुद्रा मस्तिष्क में मेरूजल का संचालन, कामेच्छाओं का नियमन एवं बालकों के विकास में सहयोगी बनती है। • थायमस एवं पिनियल ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा साधक में अनेक दिव्य गुणों को प्रकट कर महान व्यक्तित्व का सिंचन करती है ।