________________
182... बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक परिशीलन विधि
बायां हाथ इस प्रकार रखें कि उसके आगे और पीछे के दोनों हिस्से दिख सकें। दायें हाथ की मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका हथेली की तरफ मुड़ी हुई, अंगूठा उनके ऊपर तथा तर्जनी का अग्रभाग बायीं हथेली को स्पर्श करता हुआ रहने पर अग्नि ज्वाला मुद्रा बनती है।' सुपरिणाम __• यह मुद्रा जल एवं वायु तत्त्वों को संतुलित करते हुए शरीर के प्रत्येक भाग को नियंत्रित करती हैं। • इस मुद्रा का प्रभाव अनाहत एवं विशुद्धि चक्र पर पड़ता है जिससे ज्ञान ग्रन्थियाँ जागृत होती हैं। • विशुद्धि एवं आनन्द केन्द्र को सक्रिय एवं संतुलित करते हुए यह मुद्रा स्वभाव को उदार, शांत एवं चित्त को एकाग्र बनाती है। इससे काम-वासनाओं पर नियंत्रण होता है और भावधारा निर्मल एवं परिष्कृत बनती है। • एक्युप्रेशर विशेषज्ञों के अनुसार यह ऊर्जा उत्पादन, चयापचय, विष प्रतिकार, पाचन कार्य एवं मस्तिष्किय संतुलन करती है। इससे शैशव अवस्था में बच्चों के शारीरिक विकास एवं रोग निरोध आदि में भी सहायता मिलती है। 6. अग्निशाला मुद्रा
जापानी बौद्ध वर्ग में स्वीकृत यह तान्त्रिक मुद्रा ध्यान मुद्रा के समान दिखती है। इसे बौद्ध परंपरा में पुजारियों और श्रद्धालुओं द्वारा अपनाया जाता है। विधि ___दायी हथेली के ऊपर बायीं हथेली को इस भाँति रखें कि अंगुलियाँ एकदूसरे का स्पर्श न कर सकें, किन्तु अंगूठों के अग्रभाग एक-दूसरे का स्पर्श कर सकें, इस तरह अग्निशाला मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• इस मुद्रा का प्रयोग पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करता है। इससे शरीर की जड़ता, भारीपन, दुर्बलता आदि का निवारण होता है, हृदय सम्बन्धी रोगों का उपशमन होता है, एकाग्रता सधती है एवं ध्यान में प्रगति होती है। • मूलाधार एवं अनाहत चक्र को जागृत करते हुए यह मुद्रा आरोग्य, कार्य कुशलता, ओजस्विता एवं ऊर्ध्वगति में सहयोगी बनती है। • यौन एवं