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अष्टमंगल से सम्बन्धित मुद्राओं का स्वरूप एवं मूल्य......137
विधि
दोनों हथेलियों को स्वयं के अभिमुख करते हुए मुट्ठी रूप में बांधे, अंगूठे ऊपर की तरफ रहें, दायां हाथ बायें के ऊर्ध्व भाग में रहे तथा बायें हाथ के अंगूठे का प्रथम पोर दायें हाथ की मुट्ठी में आबद्ध रहे, इस तरह कुण्डध्वज मुद्रा बनती है।24 सुपरिणाम
• यह मुद्रा जल एवं वायु तत्त्व का संतुलन करती है। इससे वायु सम्बन्धी दोषों का शमन तथा रक्त, वीर्य, लसिका, मूत्र आदि से सम्बन्धित दोषों का परिहार होता है। • स्वाधिष्ठान एवं विशुद्धि चक्र को जागृत करते हुए यह मुद्रा निरोगी शरीर एवं दीर्घ जीवन में कारणभूत बनती है। • स्वास्थ्य केन्द्र एवं विशुद्धि केन्द्र को सक्रिय करते हुए यह मुद्रा जीवन को उदात्त एवं निर्मल बनाती है तथा कान्ति एवं तेज को बढ़ाती है। 24. शंखावर्त मुद्रा
जापानी बौद्ध वर्ग में प्रचलित एवं वज्रायना देवी तारा की पूजा से सम्बन्धित यह मुद्रा अष्ट मांगलिक चिह्नों में से एक है। इसे छाती के स्तर पर धारण करते हैं। इसका मन्त्र है- 'ओम् शंखवर्त प्रतिच्छा स्वाहा।' शेष वर्णन पूर्ववत। विधि
दायी हथेली को मध्यभाग में रखें, अंगुलियों को नीचे की तरफ फैलायें, अंगूठे को ऊपर की तरफ रखें। बायीं हथेली को भी मध्यभाग में रखते हुए मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को नीचे की तरफ फैलायें, तर्जनी हथेली की तरफ मुड़ी हुई, अंगूठा ऊपर उठा हुआ एवं प्रतिपक्ष अंगूठे को स्पर्श करता हुआ तथा अधोमुख अंगुलियों के अग्रभाग भी परस्पर स्पर्श करते हुए रहें, तब शंखावर्त मुद्रा बनती है।25