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सप्तरत्न सम्बन्धी मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......99
विधि
दोनों हथेलियों को मध्यभाग में रखें, अंगूठा और तर्जनी के अग्रभाग को परस्पर संयुक्त कर उन्हें निकट लाएँ तथा शेष अंगुलियों को ऊपर की तरफ फैला दिये जाने पर मणिरत्न मुद्रा बनती है। लाभ
• इस मुद्रा का प्रयोग अनाहत, सहस्रार एवं मणिपुर चक्र को जागृत करते हुए तत्सम्बन्धी कार्यों को संतुलित करना है। इससे संकल्प बल एवं पराक्रम बढ़ता है तथा साधक निर्विकल्पी एवं निर्विकारी बनता है। • वायु, आकाश एवं अग्नि तत्त्वों को प्रभावित करते हुए श्वसन, पाचन मल-मूत्र गति, रक्त संचरण आदि कार्यों में यह मुद्रा सहायक बनती है। • यह मुद्रा थायमस, पिनियल एवं एड्रिनल ग्रन्थियों को प्रभावित करते हुए मुख्य रूप से बाल विकास में सहायता प्रदान करती है। इससे निर्णायक एवं नियंत्रण शक्ति का वर्धन होता है। 3. स्त्रीरत्न मुद्रा ___यह तान्त्रिक मुद्रा बौद्ध परम्परा के सात रत्नों में से एक है। इस मुद्रा को अमूल्य रानी के उपहार की सूचक माना गया है। यह महासत्ता के सप्तरत्नों एवं अंतरिक्ष के अमूल्य खजाने को सूचित करती है। वज्रायना देवी तारा की पूजा में इस मुद्रा का उपयोग होता है। पूजा मंत्र निम्न है- 'ओम् स्त्री रत्न प्रतिच्चाहूम् स्वाहा।' ____ यह संयुक्त मुद्रा छाती के स्तर पर धारण की जाती है। इसमें दोनों हाथों में प्रतिबिंब की भाँति मुद्रा बनती है। विधि
दोनों हथेलियों को मध्य भाग में रखें। तर्जनी, मध्यमा और कनिष्ठिका को हथेली के भीतर मोड़ें, अंगूठे को मुड़ी हुई अंगुलियों के प्रथम पोर पर रखें, अनामिका को सीधी रखें तथा उभय हाथों को निकट रखने पर स्त्रीरत्न मुद्रा बनती है।