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90... बौद्ध परम्परा में प्रचलित मुद्राओं का रहस्यात्मक परिशीलन
का चुनाव किये जाने की सूचक मुद्रा है । बुद्ध ने इस मुद्रा के द्वारा मुख्य शिष्य का निर्वाचन किया था। यह मुद्रा वीरासन या वज्रासन में धारण की जाती है। विधि
दायीं हथेली को आगे की ओर बढ़ाते हुए तर्जनी को सामने की ओर फैलायें, शेष अंगुलियों को हथेली में मोड़े हुए रखें तथा अंगूठे का प्रथम पोर तर्जनी के दूसरे पोर का स्पर्श करें।
बायीं हथेली को ऊर्ध्वाभिमुख गोद के ऊपर रखने पर पेंग्-थोंग्-तंग् एततक्कसत मुद्रा बनती है 42
सुपरिणाम
• यह मुद्रा वायु एवं जल तत्त्वों में संतुलन स्थापित करती है। वायु एवं जल यह जीवन के मुख्य तत्त्व होने से शरीर के प्रत्येक भाग का संचालन एवं संतुलन बनाए रखते हैं। श्वसन, मल-मूत्र, रक्ताभिसंचरण का नियंत्रण करते हैं तथा शरीर को कान्तियुक्त एवं स्वस्थ बनाते हैं। • अनाहत एवं स्वाधिष्ठान चक्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा हृदय में सहानुभूति आदि भावों का विकास एवं इन्द्रिय निग्रह आदि गुणों का वर्धन करती है । • यह मुद्रा थायमस एवं नाभिचक्र को प्रभावित करती है। इससे बालकों में रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास होता है तथा शरारत, झूठ बोलने की प्रवृत्ति, उद्दंडता आदि का शमन होता है। 40. पेंगू- पेलोक् मुद्रा (तीन लोक को प्रदर्शित करने की मुद्रा )
यह मुद्रा थायलैण्ड देश की बौद्ध परम्परा में अधिक प्रचलित है। वहाँ इस मुद्रा का नाम ‘पेंग्-पेर्दूलोक्' मुद्रा है जबकि भारत में इस मुद्रा को 'सिंहकर्णसिंहकर्ण' मुद्रा कहा जाता है। भगवान बुद्ध द्वारा स्वाभाविक रूप से धारण की गई यह 40वीं मुद्रा है। जब भगवान बुद्ध को परम ज्ञान की प्राप्ति हुई, उसके अनन्तर उनके द्वारा तीन लोक को प्रकट करने अथवा उन्हें जानने-देखने की सूचक मुद्रा है।
विधि
दोनों हाथ नीचे की तरफ लटकते हुए, कलाई ( मणिबन्ध) स्थान से मुड़ते हुए तथा अंगुलियाँ एवं अंगूठे अपनी-अपनी दिशा की ओर फैले हुए रहने पर पेंग्-पेलोक् मुद्रा बनती है 43