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136... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
यह संयुक्त मुद्रा है। इसे रोग शमन एवं कैन्सर निवारण में उपयोगी माना है। विधि
दोनों हथेलियों को शरीर के मध्यभाग में कुछ सेन्टीमीटर की दूरी पर एवं कमर के समभाग पर आगे स्थिर करें।
अंगुलियाँ और अंगूठे फैले हुए, शिथिल और हल्के से मुड़े हुए रहें, किन्तु अपने प्रतिरूप का अथवा दूसरे हाथ का स्पर्श करते हुए न रहने पर वितत मुद्रा कहलाती है। लाभ
• यह मुद्रा शरीरगत पृथ्वी एवं वायु तत्व को प्रभावित करती है।
• यह शरीर को बलिष्ट बनाती है तथा सन्धिवात, जोड़ों के दर्द आदि में राहत देती है।
• इस मुद्रा के द्वारा मूलाधार एवं अनाहत चक्र जागृत होते हैं। यह शक्ति केन्द्र एवं आनंद केन्द्र को भी प्रभावित करती हैं। इससे काम-वासनाएँ कम होकर आन्तरिक भावनाएँ निर्मल एवं परिष्कृत बनती है।
• एक्युप्रेशर पद्धति के अनुसार यह मुद्रा एकाग्रता एवं बौद्धिक क्षमता को बढ़ाती है। साथ ही हृदय सम्बन्धी रोगों में विशेष लाभदायी है। 4. विस्तृत मुद्रा ___ हिन्दी कोश के अनुसार जो अधिक दूर तक फैला हुआ हो, लंबा चौड़ा हो उसे विस्तृत कहते हैं।
इस मुद्रा में दोनों हथेलियों के बीच वितत मुद्रा की अपेक्षा अधिक दूरी है अत: इसे विस्तृत मुद्रा कहा गया है। यह मुद्रा वितत मुद्रा के समान ही की जाती है मात्र दोनों हाथों को रखने की स्थिति में अंतर है।
यह गायत्री जाप से पूर्व करने योग्य 24 मुद्राओं में से चौथी है। इसे रोग शमन एवं कैन्सर रोग में अधिक उपयोगी माना है। विधि
दोनों हथेलियों को शरीर के मध्य भाग में अर्थात आगे की तरफ लगभग एक फुट का अंतर रखते हुए कमर के सम भाग पर स्थिर करें। फिर अंगुलियों