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शारदातिलक, प्रपंचसार आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थों में उल्लिखित ......81 दोनों हाथों को परस्पर सटाकर दोनों मध्यमाओं के नीचे से बायीं तर्जनी को दाहिनी अनामिका से और बायीं अनामिका को दाहिनी तर्जनी से सम्पृक्त करें, फिर दोनों कनिष्ठिकाओं को बांधे तथा अंगूठों को सीधा रखने पर योनि मुद्रा बनती है।24 3. चक्र मुद्रा
यह मुद्रा समस्त प्रकार की सिद्धियों एवं शुभत्व के लिए प्रदर्शित की जाती है। विधि
विपर्यस्ते तले कृत्वा, वामदक्षिणहस्तयोः । अंगुष्ठौ ग्रथयेच्चैव, कनिष्ठानामिकान्तरे ।
चक्रमुद्रेयमुद्दिष्टा, सर्वसिद्धिकरी शुभा । बायें हाथ के पृष्ठ भाग पर दायीं हथेली को रखकर दोनों अंगूठों को ग्रथित करें तथा अनामिका और कनिष्ठिका को पृथक-पृथक फैलाने पर चक्र मुद्रा बनती है।25
चक्र मुद्रा