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मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...249
उभय हाथों के दोनों अंगूठों को परस्पर में योजित करते हुए दोनों तर्जनियों को ऊपर की ओर मिलाने पर पत्र मुद्रा बनती है तथा नागवेलि पत्र के ऊपर दोनों मध्यमाओं का योग कर उन्हें ऊर्ध्वाभिमुख करने से नागवेलि पत्रद्वय मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• इस मुद्रा की साधना आज्ञा एवं अनाहत चक्र को जागृत एवं सक्रिय करती है। इनके जागरण से उदारता, सहकारिता, परमार्थ भक्ति आदि के प्रति सद्भाव उत्पन्न होते हैं। एकाग्रता, स्थिरता, ज्ञान आदि में वृद्धि होती है और स्वभाव में शान्ति एवं स्वयं में रहने की रुचि बढ़ती है।
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा दमा, हृदय, श्वास, छाती, मस्तिष्क आदि से सम्बन्धित रोगों का निवारण करती है।
• आकाश एवं वायु तत्व में संतुलन स्थापित करते हुए यह मुद्रा श्वसन, रक्त संचरण एवं मस्तिष्क के कार्यों को संतुलित करती है। कलात्मक एवं सृजनात्मक कार्यों में रुचि का वर्धन करती है।
• पीयूष एवं थायमस ग्रंथि के स्राव को नियंत्रित करते हुए साधक में सक्रियता लाती है। 10. योनि मुद्रा
जीव के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं। इस मुद्रा के माध्यम से योनि स्थान को दर्शाया जाता है अत: इसका नाम योनि मुद्रा है। किसी भी वस्तु या व्यक्ति को अपने अनुकूल बनाने के लिए इस मुद्रा का प्रयोग करते हैं। इस मुद्रा का बीज मन्त्र 'ऊ' है। विधि "संमुखं अंगुष्ठौ संपीड्य तर्जनीद्वयं च परस्परं संपीड्याऽवाच्याकारवत् प्रलंबीकरणे योनि मुद्रा।" ___दोनों हाथों को एक-दूसरे के सम्मुख रखकर अंगूठों को संपीड़ित करें और तर्जनियों को भी परस्पर में भींचकर नीचे की ओर लटकाने से अर्थात पश्चिमाभिमुख करने पर योनि मुद्रा बनती है।