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अध्याय-4
मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं
की प्रयोग विधियाँ एवं उनके सुप्रभाव
जैन मुद्रा विज्ञान के संदर्भ में मुद्राप्रकरण एवं मुद्राविधि दोनों ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण स्थान रखते है। यह ग्रन्थ विशेष रूप से वर्णित विषय का ही प्रतिपादन करते हैं। इनमें उल्लेखित शताधिक मुद्राएँ दैनिक साधना-उपासना एवं विशिष्ट
आयोजित दोनों का ही स्वरूप स्पष्ट करती है। जैन साधना पद्धति के अनेक सूक्ष्म रहस्य इन मुद्राओं के माध्यम से समझे जा सकते हैं। निम्नोक्त रूप में यह मुद्राएँ हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। 1. ॐकार मुद्रा
ॐकार की उत्पत्ति ‘अव रक्षणे' धातु से मानी गई है। इससे ‘अवति रक्षति संसार सागरात स ओम्' अर्थात जो संसार सागर से रक्षा करता है वह ओम् है ऐसा अर्थ प्रकट होता है। सभी मंत्रों में ॐ का प्रथम स्थान है, जैसे ॐ नमो अरिहंताणं, ॐ सरस्वत्यै नमः, ॐ नमः शिवाय आदि। ॐकार का महत्त्व बतलाते हुए अनेक ग्रन्थों में कहा गया है कि ॐ से सकल देवता उत्पन्न हुए हैं, ॐ से स्वर निधि जागृत होती है, ओंकार में ब्रह्माण्ड (स्वर्ग-मृत्यु-पाताल लोक) समाविष्ट है। ओंकार नाद ब्रह्म है, ओंकार आध्यात्मिक कवच है, ओंकार ब्रह्म तत्त्व है, ओंकार अक्षर ब्रह्म है। भूत-वर्तमान-भविष्य इन तीनों काल में होने वाले समस्त कार्य ॐकार में व्याप्त है तथा तीन काल से जो अतीत हैं, वे सब भी ॐकारमय है। ___छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार समस्त भूतों का सार पृथ्वी है, पृथ्वी का सार जल, जल का सार औषधि (धान्यादि), औषधि का सार पुरुष, पुरुष का सार वाणी, वाणी का सार ऋचाएँ, ऋचाओं का सार सामवेद, सामवेद का सार उद्गीथ रूप ॐकार है।