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206... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
यह सर्दी, कफ, दमा, खांसी आदि रोगों को शान्त करती है। शरीर के विभिन्न भागों में स्थित अन्तःस्रावी एवं बहिस्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करती है। • आध्यात्मिक दृष्टि से संकल्प शक्ति दृढ़ होती है। साधक की समस्त गतिविधियाँ आत्म सजगता से अनुपूरित होने लगती है।
वह परमार्थ रस में आनन्द की अनुभूति करता हुआ अगोचर प्रभुता का वरण कर लेता है।
• इस मुद्रा की साधना मूलाधार एवं मणिपुर चक्र को प्रभावित करती है। इससे व्यक्तित्व बोध, भावनात्मक सुरक्षा, दृढ़ आत्मविश्वास एवं ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण होता है।
• एड्रीनल, पैन्क्रियाज एवं प्रजनन ग्रन्थि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा रक्तचाप (B.P.), पेट की गड़बड़ी, कमजोरी, त्वचा में रूखापन, नपुंसकता, मासिक धर्म, कामुकता आदि पर नियंत्रण कर साधक में साहस, निर्भयता, सहनशीलता, आशावादिता आदि गुणों का निर्माण करती है। 9. प्रियंकरी मुद्रा
सर्वजन को आनन्दित करने वाली, सर्वसाधकों को तुष्ट करने वाली मुद्रा प्रियंकरी मुद्रा कहलाती है।
आचार दिनकर के अनुसार इस मुद्रा के माध्यम से दुष्ट शक्तियों को स्तम्भित किया जाता है।
तात्पर्य है कि यह मुद्रा देखकर किसी तरह के अनिष्ट तत्त्व मर्यादित भूमि में आकर उपद्रव नहीं कर सकते। वे शक्तियाँ दूरवर्ती क्षेत्र में ही स्थिर हो जाती हैं। निम्न दर्शाये चित्र में हाथों की स्थिति स्तम्भन तुल्य है। इस मुद्रा के द्वारा किन्हीं अशुभ तत्त्व को स्तम्भित करने हेतु प्रेम पूर्वक वर्तन किया जाता है। इसलिए इस मुद्रा का प्रियंकरी नाम सर्वथा उचित है।
विधि
“वज्राकारकृतयोर्भुजयोः स्कन्धद्वये हस्तस्थापनं प्रियंकरी मुद्रा । " दोनों भुजाओं को वज्राकार बनाकर दोनों कंधों पर हाथ स्थापित करने से जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे प्रियंकरी मुद्रा कहते हैं।