________________
विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......179 विधि
"वामकरधृतदक्षिण कर समालभने अंगमुद्रा।"
बायीं हथेली पर दाहिनी हथेली को रखकर परस्पर में अच्छी तरह स्पर्शन करना अंग मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा पंच प्राणों के प्रवाह को नियमित कर स्वस्थता प्रदान करती है।
व्यान प्राण के प्रवाह को तीव्र कर कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में सहायक बनती है।
श्वास पर नियन्त्रण कर मन की चंचलता को शान्त करती है। इससे जल एवं आकाश तत्त्व संतुलित स्थिति में रहते हैं। • आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा मानसिक आवेगों को शान्त करती है। विश्रृंखलित मानस को एकाग्रचित्त करती है।
इससे साधक में अद्भुत शक्तियों का जागरण तथा उच्च भावनाओं का अभ्युदय होता है। 72. योग मुद्रा
साधारणत: योग का अर्थ होता है- संयोग अथवा जोड़। जैन ग्रन्थों में योग की विभिन्न परिभाषाएँ उल्लिखित हैं। तत्त्वार्थसूत्र में मन, वचन, काया की शुभाशुभ प्रवृत्ति को योग कहा गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की चर्चा करते हुए बतलाया है कि जो मोक्ष का कारण हो वही योग है। ___पातञ्जल योगशास्त्र के अनुसार “योगश्चित्तवृत्ति निरोधः' चित्तवृत्ति का निरोध ही योग है। इसके लिए उन्होंने आठ अंग बताये हैं- 1. यम, 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान 8. समाधि। ___ भगवद्गीता के अनुसार सफलता और असफलता दोनों को समान भाव से देखना ही योग है। कर्मों में कुशलता ही योग है। जीवन का चरम रहस्य योग है। योग शान्ति है। योग कष्ट निवारक है।
लौकिक व्यवहार में किसी घटना के घटित होने पर कहते हैं योग था। अंकगणित में दो संख्याओं के जोड़ने को योग कहते हैं। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न आसनों को योग कहते हैं।