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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......125 जैन परम्परा के अनुसार यह मुद्रा महापूजा आदि अनुष्ठान की समाप्ति पर की जाती है तथा पूर्वस्थापित नवग्रह पट्ट, दशदिक्पालपट्ट, कुंभकलश अथवा अर्पित मिष्टान्न-फल आदि सामग्री के ऊपर दिखायी जाती है।
संभवत: संहार मुद्रा करते हुए यह भाव उत्पन्न किया जाता है कि अमक व्यक्ति अथवा श्रीसंघ ने आपको (देवी-देवता) उल्लास एवं बहुमानपूर्वक इस धर्मोत्सव में आमन्त्रित किया, सुयोग्य स्थान पर बिठाया तथा आपके दिव्य प्रभाव से इष्ट कार्य निर्विघ्नतया सम्पन्न भी हुआ। आपकी पुन: उपस्थिति की हरपल कामना करते हुए अमुक स्थान से उठने का निवेदन किया जा रहा है। उपर्युक्त भावपूर्वक इस मुद्रा से देवी-देवताओं का सम्मान होता है। हर सामान्य व्यक्ति सत्कार और सम्मान चाहता है और सम्मान पाकर आनन्दित ही नहीं, प्रत्युत सम्मान दर्शाने वाले के लिए यथाशक्ति सहयोग की भावना रखता है। उसी तरह देवी-देवतागण भी सम्मान प्राप्त कर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं तथा श्रद्धालु साधकों की मनोकामना को पूर्ण करने हेतु तत्पर रहते हैं।
सिद्धचक्र, शांतिस्नात्र आदि महापूजनों में देवताओं को मिष्टान्न-फल आदि भी चढ़ाये जाते हैं। इस मुद्रा के माध्यम से अर्पित फल आदि को समेटने की आज्ञा दर्शायी जाती है। इसके पीछे तथ्य यह है कि जिस अतिथि को जो कुछ अर्पण किया है उसको वहाँ से हटाने के लिए आमंत्रित अतिथियों की आज्ञा आवश्यक है। कार्यक्रम समाप्ति की सूचक यह मुद्रा लौकिक जीवन में भी की जाती है।
इस तरह संहार मुद्रा अद्भुत रहस्य प्रधान है। विधि
ग्राह्यस्योपरि हस्तं प्रसार्य कनिष्ठिकादि-तर्जन्यन्तानामङ्गुलीनां क्रमसंकोचनेनाङ्गुष्ठ मूलानयनात् संहार मुद्रा।"
उठाने योग्य वस्तुओं के ऊपर हाथ को प्रसारित करते हुए एवं कनिष्ठा से लेकर तर्जनी पर्यन्त अंगुलियों को क्रमशः सिकोड़ते हुए अंगूठे के मूल स्थान तक ले जाना संहार मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से अग्नि, तत्त्व एवं पृथ्वी तत्त्व संतुलित अवस्था में रहते हैं। इससे गर्मी के प्रकोप से होने वाली तकलीफों में शान्ति मिलती है।