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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......113 विधि
"दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्ध्वा तर्जनी मध्यमे प्रसारयेदिति खड्गमुद्रा।"
दाहिने हाथ को मट्ठी रूप में बांधकर उसकी तर्जनी और मध्यमा को प्रसारित करने पर खड्ग मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा श्वास एवं उदर सम्बन्धी रोगों में लाभदायी है। इससे आकाश तत्त्व एवं जल तत्त्व नियन्त्रित रहते हैं तथा हृदयजनित किसी भी तरह की तकलीफों में राहत मिलती है।
इस मुद्रा के अभ्यास से साधक की बुद्धि तलवार की भाँति तीक्ष्ण एवं प्रखर बनती है। इससे दैहिक समस्याएँ जैसे- रक्त कैन्सर, खसरा, बिस्तर गिला होना, हर्निया, नपुंसकता, प्रजनन तंत्र की समस्या, कामुकता, मस्तिष्क सम्बन्धी समस्या आदि का निवारण होता है।
• मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से साधक में आत्मरक्षा की भावना का जागरण होता है। ___इस मुद्रा के द्वारा स्वाधिष्ठान एवं आज्ञाचक्र गतिशील बनता है, जिसे स्वास्थ्य एवं दर्शन केन्द्र कहते हैं। यह चैतन्य का बहुत बड़ा केन्द्र है, इसकी असीम क्षमताएँ हैं, वे सभी जागृत होती हैं। कुछ शरीर शास्त्रियों ने इसे एक प्रकार से सर्वज्ञता का केन्द्र कहा है। जो साधक दस-पन्द्रह मिनट दर्शन केन्द्र पर स्थिर होना शुरू कर देता है, उसका भटकाव मिट जाता है। इसी के साथ पूर्वाभास, अन्तर्दृष्टि आदि अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास होता है।
पीयूष एवं प्रजनन ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा साधक को तनावमुक्त, प्रसन्नचित्त, उत्साहित, समत्वशील, मधुर भाषी, शांत स्वभावी बनाती है। काम वासना को नियंत्रित कर चेहरे के आकर्षण, तेज एवं व्यक्तित्व को प्रभावी बनाती है। यह स्वर सुधारने एवं शरीर के तापमान को संतुलित रखने में भी सहयोगी बनती है। विशेष
• एक्यूप्रेशर पद्धति के अनुसार शरीर का कोई भी अंग गिर पड़े, जैसे आंख की पलक का गिर पड़ना अथवा कोई भी अंग अपना कवच छोड़कर बाहर निकल पड़े, जैसे योनि या गुदा का बाहर निकलना, इन दोनों रोगों के