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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप... .107
ग्रन्थि के स्राव को नियमित कर शारीरिक विकास को सन्तुलित रखती है। यौन ग्रन्थि एवं शरीर में स्थित जल तत्त्व को सन्तुलित करती है। इस मुद्रा से अग्नि और वायु तत्त्व सम्बन्धित अवयव स्वस्थ रहते हैं। इससे चेहरे का आकर्षण एवं तेज बढ़ता है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मसजगता और स्वोन्मुखता का अभ्युदय होता है। कुंडलिनी शक्ति सर्पाकार रूप को छोड़कर ऊर्ध्वगामी बनती है। इससे अद्भुत शक्तियाँ अनुभूति के स्तर पर प्रकट होती हैं।
36. वृक्ष मुद्रा
वृक्ष अर्थात पेड़। पेड़ अनेक प्रकार के होते हैं जैसे बड का पेड़, पीपल का पेड़, नीम का पेड़, आम का पेड़ आदि । प्रायः सभी वृक्षों की कुछ विशिष्टताएँ समान होती हैं । जैसे वे किसी तरह के प्रतिफल की भावना रखे बिना उत्तम फल प्रदान करते हैं, बिना किसी प्रतिचाह के छाया देते हैं, तप्तमार्ग पर चलते हुए राहगीर को आश्रय देते हैं। ऋतु परिवर्तन एवं सर्दी, गर्मी या प्रकुपित
वृक्ष मुद्रा