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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......55 विधि
"हस्ताभ्यामञ्जलिं कृत्वा प्राकामामूलपांगुष्ठ संयोजनेन आवाहनी।"
दोनों हाथों से अंजलि बनाकर सभी अंगुलियों के मूल पर्व पर अंगूठों का अच्छी तरह संयोजन करने से आवाहनी मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से मासिक धर्म सम्बन्धी अनियमितता, खून की कमी, सूखी त्वचा, हर्निया, दाद, कान-नाक-गले सम्बन्धित समस्या, नींद में बिस्तर गीला करना आदि पर नियंत्रण होता है।
वायु एवं जल तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा रक्त संचरण एवं प्रजनन तंत्र के विकारों का शमन करती है। हृदय, फेफड़ें, भुजा, गुर्दे एवं मलमूत्र संबंधी कार्यों को भी नियमित करती है।
यह मुद्रा थाइरॉयड, पेराथाइरॉयड एवं गोनाड्स के स्राव को संतुलित करती है। इससे शरीरस्थ ऑक्सीजन, कार्बन डाई ऑक्साइड का प्रवाह तथा कैल्शियम, आयोडिन और कोलेस्ट्रोल आदि का नियंत्रण होता है। आवाज मधुर बनती है। यह बच्चों के मानसिक विकास और स्वाभाविक ऋजुता में सहायक बनती है। इससे जननेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों का निवारण, कामेच्छा का नियंत्रण, बालों की वृद्धि तथा शरीर के तापमान पर नियमन होता है। इससे एड्रीनल ग्रंथि सक्रिय होती है जिससे शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता का वर्धन होता है। यह व्यक्ति को साहसी, निर्भीक, सहनशील एवं आशावादी बनाती है तथा आत्मविश्वास जागृत करती है। शरीर को सभी प्रकार की एलर्जी एवं रोगों से भी बचाती है।
• मानसिक स्तर पर इस मुद्राभ्यास से विशुद्धि एवं स्वाधिष्ठान चक्र विशेष प्रभावित होते हैं इससे आह्वान क्रिया को पोषण मिलता है तथा तृष्णा, कामुकता, आत्महीनता, घबराहट आदि से बचाव होता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा मूलाधार में स्थित कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करती है। इस मुद्राभ्यास से साधक स्थूल एवं सूक्ष्म के बीच अन्तर समझने लगता है तथा परमात्म साक्षात्कार के निकट पहुँच सकता है।