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________________ 44... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा ___ इन्द्रियों की क्षीण होती शक्तियों की रक्षा करने में भी यह मुद्रा उत्यन्त उपयोगी है। स्वास्थ्य में आई गिरावट से लड़ने के लिए यह आत्म स्फुर्णा उत्पन्न करती है। प्राणमय कोष जागृत एवं सक्रिय बनता है। ___ यदि शरीर में वायुतत्त्व की कमी हो अथवा वायु तत्त्व असंतुलित हो तो इस मुद्रा से वह गड़बड़ी दूर हो जाती है। • आध्यात्मिक स्तर पर इस मुद्राभ्यास से विशुद्ध भावनाओं का जागरण होता है। इच्छित कार्यों को क्रियान्वित करने की क्षमता बढ़ती है। स्वाधिष्ठान चक्र संप्रभावित होता है परिणामस्वरूप व्यक्तित्व हिमालय जैसा धवल और निर्मल बनता है तथा उदारता और सम्पन्नता बढ़ती है। विशेष • इस मुद्रा को बनाते वक्त हाथों का आकार कवच जैसा प्रतीत होता है। अत: इसे कवच मुद्रा कहते हैं। • एक्यूप्रेशर सिद्धान्त के अनुसार यह पेन्क्रियाज, अग्नाशय, एड्रीनल, फेफड़ें सम्बन्धी दोषों का निवारण करती है। • यौगिक चक्र के अनुसार यह स्वाधिष्ठान चक्र को प्रभावित करती है। इस मुद्रा से उदर सम्बन्धी असंतुलन दूर होता है तथा प्रसव क्रिया के अनन्तर होने वाले रोगों का निदान होता है। 7. क्षुर मुद्रा बाण के नीचे का हिस्सा क्षुर कहलाता है। बाल काटने के अस्त्र को भी क्षुर कहते हैं। विधिमार्गप्रपा में क्षुर मुद्रा का उल्लेख भृकुटि के मध्य तीसरे दिव्य नेत्र के रक्षण के सन्दर्भ में हुआ है। __जैसे क्षुर का अग्रभाग चमकीला, तीक्ष्ण, तेज और ओज गुण प्रधान होता है वैसे ही तीसरा (भाव) नेत्र अखण्डित तेज से युक्त होता है। इस मुद्रा के द्वारा उस अंतरंग शक्ति को अबाधित रखा जाता है और बाह्य उपद्रवों से त्रिनेत्र की रक्षा की जाती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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