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________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......37 यह मुद्रा हृदय शुद्धि एवं दुष्ट प्रभावों से संरक्षण करने हेतु की जाती है। विधि "बद्धमुष्टयोः करयोः संलग्नसंमुखांगुष्ठयोर्हृदयमुद्रा । " अर्थात परस्पर मिले हुए दोनों हाथों की मुट्ठियों के अंगूठों को स्वयं के सम्मुख रखने पर हृदय मुद्रा बनती है । सुपरिणाम शारीरिक स्तर पर हृदय शरीर का सर्वाधिक शक्तिशाली अवयव है। यह मुद्रा हृदय गति को नियन्त्रित कर मन की चंचलता को शान्त करती है। जठराग्नि को प्रद्दीप्त करता है एवं पाचन क्रिया को सक्रिय बनाता है। इस मुद्रा में पंच तत्त्वों का पारस्परिक संयोग होने से देह स्थित सभी तत्त्व नियन्त्रित रहते हैं तथा शारीरिक स्वस्थता का अनुभव होता है । • मानसिक दृष्टि से चित्त शान्त, स्थिर एवं एकाग्र बनता है। हृदय मुद्रा को धारण करने से अनाहत चक्र एवं ब्रह्म केन्द्र सक्रिय होते हैं। इससे निर्ममता, उग्रता, अनुत्साह, निराशा, पागलपन आदि का निवारण होता है। धूम्रपान नियंत्रण में यह मुद्रा विशेष रूप से सहायक हो सकती है। पुरानी बीमारी, ऊर्जा की कमी, पार्किन्संस, हृदय एवं श्वसन सम्बन्धी समस्याएँ, सुस्ती, दमा, मस्तिष्क सम्बन्धी रोग, कैन्सर आदि शारीरिक समस्याओं में भी यह मुद्रा विशेष लाभ पहुँचाती है । वायु एवं आकाश तत्त्व का संतुलन करते हुए यह हृदय, फेफड़ें, रक्त चार प्रणाली, श्वसन तंत्र आदि का नियमन करती है तथा आनंद की अनुभूति करवाती है। थायमस, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रन्थियों के स्राव को नियंत्रित करते हुए यह मुद्रा हड्डियों के विकास, घाव भरने, रक्त प्रवाह, कोलेस्ट्रॉल, कामवासना आदि का नियंत्रण करती है। यह मुद्रा आवाज नियंत्रण, स्वभाव नियंत्रण, मोटापा, वजन, दुर्बलता, ऑर्थराइटिस आदि में भी लाभकारी है। • आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा विषय कषायों का शमन कर क्षमा आदि गुणों का उत्सर्जन करती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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