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अध्याय-3 प्रतिष्ठा सम्बन्धी आवश्यक पक्षों का
मूल्यपरक विश्लेषण
जिनालय में जिनबिम्ब की स्थापना करना द्रव्य प्रतिष्ठा है और तीर्थंकर परमात्मा को हृदय में स्थापित करना भाव प्रतिष्ठा है। इसे द्रव्यानुयोग की भाषा में व्यवहार और निश्चय प्रतिष्ठा कह सकते हैं। प्रत्येक निश्चय का व्यवहार पर भारी प्रभाव होता है और प्रत्येक व्यवहार निश्चय को हासिल करने हेतु होता है।
प्रतिष्ठा शब्द के अनेक तात्पर्य कहे जा सकते हैं जैसे अरिहंत परमात्मा के गुणों की हृदय मंदिर में स्थापना करना प्रतिष्ठा है, प्रभु के प्रतीक स्वरूप तीर्थंकर परमात्मा की जिनालय में स्थापना करना प्रतिष्ठा है, भक्त की भगवान में तदाकारता प्रतिष्ठा है, प्रतिमा में अरिहंत प्रभु के तेजोमय चैतन्य की प्रतिस्थापना प्रतिष्ठा है, प्रतिमा में ईश्वरीय श्रद्धा का अनुष्ठान प्रतिष्ठा है, अनेक आत्मा में सन्निहित आस्तिक्यता का दर्शन प्रतिष्ठा है, जिन धर्म के श्रद्धालुओं की श्रद्धा का सर्जन प्रतिष्ठा है।
उक्त परिभाषाएँ धर्म और अध्यात्म से सम्बन्धित हैं। प्रतिष्ठा का अभिप्राय पारिवारिक, सामाजिक, वैश्विक आदि दृष्टिकोणों से भी घटित होता है। प्रतिष्ठाचार्य के हृदय में जब परमात्मा प्रतिष्ठित होते हैं तब केवल मंदिर की ही प्रतिष्ठा नहीं होती, बल्कि भाई-भाई में प्रेम की प्रतिष्ठा, परिवार में समन्वय की प्रतिष्ठा, शरीर में स्वास्थ्य की प्रतिष्ठा, मन मन्दिर में प्रसन्नता की प्रतिष्ठा, देश में सुरक्षा और सदाचार की प्रतिष्ठा, मानव मात्र में श्रद्धा की प्रतिष्ठा, सभी धर्मों में परस्पर सौहार्द की प्रतिष्ठा, हृदय में सुमति और सद्भाव की प्रतिष्ठा, विश्व में शांति और अहिंसा की प्रतिष्ठा होती है। प्रतिष्ठाचार्य इन्हीं भावों के साथ प्रतिष्ठा करते हैं इसीलिए यह प्रतिष्ठा विश्व के जीव मात्र का कल्याण करती है। जितना महत्त्व प्रतिष्ठा का है उतना ही महत्त्व प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठा विधि का होता है। प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठा विधि दोनों की अपूर्वता प्रतिष्ठा प्रसंग में महनीय