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626... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में इन्हें समान रूप से मान्यता प्राप्त है।
यौगिक साधना में विद्या और मंत्र का अंतर बताते हुए यह कहा गया है कि जो स्त्री-देवता से अधिष्ठित हो वे विद्याएँ हैं और जो पुरुष देवता से अधिष्ठित हो वे मंत्र हैं। प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों में विद्याओं के उल्लेख अवश्य मिलते हैं, किन्तु वे मात्र विशिष्ट प्रकार की ज्ञानात्मक या क्रियात्मक योग्यताएँ अथवा शक्तियाँ हैं जिनमें लिपिज्ञान से लेकर अन्तर्ध्यान होने तक की कलाएँ सम्मिलित हैं किन्तु इन ग्रन्थों में उन्हें पापश्रुत ही कहा गया है। यहाँ विद्यादेवियों का अभिप्राय ज्ञान शक्ति से सम्पन्न वाणी रूप देवियाँ है। ____ आचार दिनकर में पूजोपासना की अपेक्षा देवी-देवताओं को तीन भागों में विभक्त किया गया है उनमें श्रुतदेवता या विद्यादेवियों को कुल देवताओं की श्रेणि में माना गया है।
यदि इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि इन 16 विद्यादेवियों की सूची तिजयपहुत्थन विसति संहितासार (636 ई.), स्तुति चतुर्विंशति, हरिवंश पुराण और बप्पभट्टसूरिकृत चतुर्विंशतिका में मिलती है। इनका प्राचीनतम अंकन ओसिया (6वीं शती), कुम्भारिया (11वीं शती), आबू (12वीं शती), आबू लूणवसही (13वीं शती) में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में विद्यादेवियों का अंकन मात्र खजुराहो (11वीं शती) में ही उपलब्ध है। विद्यादेवियों का वर्तमान प्रचलित नाम क्रम नौवीं शती के बाद प्राप्त होता है।
श्वेताम्बर परम्परा में 16 विद्यादेवियों का अत्यधिक महत्त्व है। इनकी पूजोपासना मंगल रूप मानी गई है। एतदर्थ प्रतिष्ठा, महापूजन, ध्वजारोहण, शान्ति कलश, स्नात्र पूजा आदि मांगलिक अवसर पर इनका नाम स्मरण एवं पूजा-उपासना की जाती है। वैसे ये देवियाँ अपने नाम के अनुरूप ही शुभ कारक और सन्मति सूचक है।
इन देवियों की प्रतिमाएँ मन्दिर के भीतरी एवं बाह्य भाग में लगाई जाती है। खजुराहो एवं राणकपुर के जैन मन्दिरों में सोलह विद्यादेवियों की प्रतिमाएँ अत्यन्त मनोहारी हैं।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार इनका सचित्र वर्णन निम्न प्रकार है