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प्रतिष्ठा का अर्थ विन्यास एवं प्रकार ...3
श्रुतेन सम्यग्ज्ञातस्य, व्यवहार प्रसिद्धये । स्थाप्य कृतनाम्नोऽन्तः स्फुरतो न्यासगोचर ।। साकारे वा निराकारे, विधिना यो विधियते ।
न्यासस्तदिदमित्युक्त्वा, प्रतिष्ठा स्थापना च सा ।। श्रुत के द्वारा समीचीन रूप से जाने गये स्थाप्य के विषय भूत ऋषभ आदि तीर्थंकर की साकार या निराकार पाषाण आदि में जो विधिपूर्वक स्थापना की जाती है उसका नाम प्रतिष्ठा है। इसे दूसरे शब्दों में स्थापना और न्यास भी कहा जाता है।
• आचार्य हरिभद्रसूरि कृत षोडशकप्रकरण में प्रतिष्ठा का भावात्मक स्वरूप विश्लेषित करते हुए कहा गया है कि
. भवति च खलु प्रतिष्ठा, निज भावस्यैव देवतोद्देशात् ।
स्वात्मन्येव परं यत्स्थापनमिह वचननीत्योच्चैः ।। अर्थात देवता (परमात्मा) के उद्देश्य से आगमोक्त विधिपूर्वक आत्मा में आत्मभावों की अत्यंत श्रेष्ठ स्थापना करना प्रतिष्ठा है। दूसरे शब्दों में प्रतिष्ठा के प्रयोजक कर्ता के विशिष्ट परिणाम की प्रधान रूप से स्थापना करना प्रतिष्ठा है।'
• उपाध्याय यशोविजयजी ने आचार्य हरिभद्रसूरि के मत का अनुकरण करते हुए कहा है कि इष्टदेव के उद्देश्य से स्वयं की आत्मा में आत्मबुद्धि का स्थापन करने पर वीतरागता की प्राप्ति होती है। और यही भाव प्रतिष्ठा है। बाह्य प्रतिष्ठा उपचारपूर्वक होती है।10 स्पष्टीकरण हेतु मूल पाठ निम्न है
देवोद्देशेन मुख्येयमाऽऽत्मन्येवात्मनो धियः ।
स्थाप्ये समरसापत्ते, रूपचाराद् बहिः पुनः ।। इस परिभाषा का गूढ़ आशय यह है कि प्रकृष्ट रीति से स्थापना करना प्रतिष्ठा है।
पूर्वोक्त अर्थ के अनुसार वीतरागता, चिन्मयत्वता आदि गुणों का अवगाहन करने वाली बद्धि की स्वयं में प्रकृष्ट रूप से स्थापना करना प्रतिष्ठा है। द्रव्यत: वीतरागता आदि गुणों का आरोपण मूर्ति में किया जाता है तथा भावत: जिनागम के अनुसार स्वयं में ही वीतरागत्व आदि भावों की स्थापना की जाती है।