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अध्याय- 1
प्रतिष्ठा का अर्थ विन्यास एवं प्रकार
प्रतिष्ठा यह श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा का एक अत्यंत प्रसिद्ध एवं महत्त्वपूर्ण विधान है। यह एक सामूहिक अनुष्ठान है। संघ - समाज का हर एक व्यक्ति एवं हर तबका किसी न किसी रूप में इस विधान का अंश बनता है। सकल संघ को जोड़ने के लिए यह एक महत अभियान है।
प्रतिष्ठा एक ऐसा वैज्ञानिक विधिक्रम है कि जिसका प्रभाव व्यक्ति, समाज, संघ, गाँव, नगर, शहर और देश के ऊपर प्रत्यक्ष रूप से देखा जाता है ।
प्रतिष्ठा पाषाण को पूज्य, कंकर को शंकर और जिन प्रतिमा को साक्षात जिन रूप में स्थापित करने की अद्भुत प्रक्रिया है, प्रतिष्ठाचार्य के सम्पूर्ण जीवन की साधना का निचोड़ है, श्रेष्ठ भावों की अभिवृद्धि का मंगल उपक्रम है तथा बहिरात्मा से अंतरात्मा में प्रवेश करने का श्रेष्ठ आलम्बन है।
यह संस्कार स्वानुभव की प्राप्ति एवं शुद्ध अवस्था की उपलब्धि के उद्देश्य से किया जाता है। इस अनुष्ठान का मुख्य प्रयोजन अनादिकाल से आवृत्त परमात्म स्वरूप को प्रकट करना है।
प्रतिष्ठा का शाब्दिक अर्थ
प्रति उपसर्ग + स्था धातु + आड्. + टाप् प्रत्यय के संयोग से प्रतिष्ठा शब्द निष्पन्न है।
यहाँ ‘प्रति’ उपसर्ग विशेष के अर्थ में है तथा 'स्था' धातु ठहरना, रहना, स्थिरता, स्थिति, स्थैर्य आदि के प्रसंग में है। इसका सामान्य अर्थ होता है कि विशिष्ट रूप से स्थिर करना अथवा किसी वस्तु का अच्छी तरह से रहना प्रतिष्ठा है।
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• संस्कृत हिन्दी कोश के अनुसार किसी देव प्रतिमा की स्थापना करना प्रतिष्ठा है। प्रस्तुत सन्दर्भ में प्रतिष्ठा का यही अर्थ अभीष्ट है। 1
• प्राकृत कोश में सन्दर्भित अर्थ के सूचक दो शब्द हैं- पइट्ठव और
पइट्ठा।