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अध्याय-16 सम्यक्त्वी देवी-देवताओं का शास्त्रीय स्वरूप
कई बार लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि आखिर जैन धर्म में देवीदेवताओं का क्या स्वरूप है? उनका अस्तित्व किस रूप में है? यदि इस विषय में आगमों का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि चार गतियों में से एक देव गति मानी गई है, जिसमें देवी-देवताओं का समावेश होता है। इनके मुख्य चार भेद करते हुए इन्हें मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक का निवासी माना है। अत: उनका अस्तित्व जैन धर्म में स्वीकारा गया है यह स्पष्ट है। जब तीर्थंकरों के कल्याणक मनाए जाते हैं तो करोड़ों देवी-देवता उस समय उपस्थित रहते हैं तथा उनके समस्त कार्य जैसे कि जन्मशुचिकरण, दीक्षा की तैयारी, समवसरण रचना आदि सब कुछ देवों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं। इस तरह परमात्मा का स्थान सर्वोपरि, सर्वश्रेष्ठ एवं सर्व पूज्य है यह सिद्ध हो जाता है। हजारों देवीदेवता परमात्मा के सेवक के रूप में सदा उनके चरणों में उपस्थित रहते हैं। परमात्मा के प्रति अनुराग एवं श्रद्धा होने के कारण वे सम्यक्त्वी हैं यह निश्चित है। सम्यक्त्वधारी एवं परमात्म उपासक होने से एक श्रावक के लिए उनका स्थान साधर्मिक बंधु के समान होता है और साधर्मिक के रूप में ही उनका बहुमान आदि किया जाता है। देवी-देवताओं में उनके देवत्व गुण के कारण मनुष्य की अपेक्षा कुछ अधिक शक्तियाँ होती है, जिसके द्वारा वे विघ्नों एवं उपद्रवों के उपशमन में सहायक बन सकते हैं। अरिहंत भक्त होने से वे परमात्म भक्तों के उपद्रवों को सहज दूर करते हैं तथा अन्य कार्यों की सिद्धि में सहायक बनते हैं। तीर्थंकर परमात्मा की साक्षात उपस्थिति में विशेष सेवा रत देव युगल को शासन देव-देवी की उपमा दी जाती है। उन्हें मात्र धर्म रक्षक की उपमा दी गई है। जैन शास्त्रों में कहीं भी उनकी पृथक आराधना या विशेष आराधना करने का वर्णन नहीं है क्योंकि वे तो परमात्मा की सेवा से ही प्रसन्न हो जाते हैं अत: वर्तमान में देवी-देवताओं के पूजन का बढ़ता प्रचलन अवश्य विचारणीय है।