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588... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
अर्थात नक्षत्र, मुहूर्त, तिथि और कारण इन चार का दण्डनायक यानी सेनापति शकुन है। आचार्य लल्ल भी कहते हैं
___ अपि सर्वगुणोपेतं, न ग्राह्यं शकुनं बिना।
लग्नं यस्मानिमित्तानां, शकुनो दण्डनायकः ।।1।। अर्थात भले ही सर्व गुण सम्पन्न लग्न हो पर शुभ शकुन बिना उसका स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि नक्षत्र, तिथि आदि निमित्तों का सेनानायक शकुन है। यही कारण है कि वर्जित शकुन में किये हुए प्रतिष्ठादि शुभ कार्य के परिणाम भी आशाजनक नहीं होते हैं।
7. प्रतिष्ठाचार्य, स्नात्रकार और प्रतिमागत गुण-दोष- उक्त त्रिक में रहे हुए गुण-दोष भी प्रतिष्ठा की सफलता और निष्फलता में अपना असर दिखाते हैं, यह बात पहिले ही कही जा चुकी है। शिल्पी की सावधानी या लापरवाही भी प्रतिष्ठा में कम असरकारक नहीं होती। शिल्पी की अज्ञता और असावधानी के कारण से आसन, दृष्टि आदि यथा-स्थान नियोजित न होने के कारण से भी प्रतिष्ठा की सफलता में अन्तर पड़ जाता है।
8. अविधि से प्रतिष्ठा करना यह भी प्रतिष्ठा की असफलता में एक मुख्य कारण है। आज का गृहस्थवर्ग यथाशक्ति द्रव्य खर्च करके ही अपना कर्त्तव्य पूरा हुआ मान लेते हैं। प्रतिष्ठा सम्बन्धी विधिकार्यों के साथ मानों इसका सम्बन्ध ही न हो ऐसा समझ लेते हैं। अधिकांश प्रदेशों में तो प्रतिष्ठा में होने वाली इनकम के आधार पर उसकी श्रेष्ठता और हीनता मानी जाती है। प्रतिष्ठाचार्य और विधिकारक कैसे हैं, विधि-विधान कैसे होते हैं इत्यादि बातों को देखने की किसी को फुरसत ही नहीं होती। आगन्तुक मेहमानों की व्यवस्था करने के अतिरिक्त मानो स्थानीय जैनों के लिए कोई काम ही नहीं होता। ऐसे में कई बार प्रतिष्ठाचार्य एवं विधिकारक अपनी स्वार्थपूर्ति भी कर लेते हैं। उन्हें मात्र अपनी लिस्ट में संख्या बढ़ाने से मतलब होता है, प्रतिष्ठा परिणामों से नहीं।
स्वार्थसाधक प्रतिष्ठाचार्यों के सम्बन्ध में आचार्य श्री पादलिप्तसूरि कहते हैं
अवियाणिऊण य विहिं, जिणबिंबं जो ठवेति मूढमणो।
अहिमाणलोहजुत्तो, निवडइ संसार-जलहिमि ।।77।। अर्थात “प्रतिष्ठा-विधि को यथार्थ रूप में जाने बिना अभिमान और लोभ