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566... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन मुक्त नहीं रह सकें। प्रतिष्ठाकल्पों की उत्पत्ति का इतिहास चर्चित करने से पूर्व प्रतिष्ठा कल्पों और प्रतिष्ठा विधियों में हुए क्रमिक परिवर्तन आदि के सम्बन्ध में निरूपण अपेक्षित है।
प्राचीन काल में प्रतिष्ठा विधान अत्यन्त सुगम और अल्पव्यय साध्य होता था, आधुनिक युग में प्रचलित सामग्री की लम्बी सूची पूर्वकाल में नहीं थी। इस तरह की विधि-स्थितियों को समझने के लिए प्राचीन और अर्वाचीन प्रतिष्ठा कल्पों में उल्लिखित सामग्री आदि में कालक्रम से किस प्रकार वृद्धि हुई और आज कई अनुष्ठान मूल विधि से स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए किस स्थिति तक पहुँच गये हैं इस विषय पर उपलब्ध विवरण इस प्रकार है
पाटला- निर्वाणकलिका की रचना के समय में श्रीअंजनशलाका प्रतिष्ठा में मात्र नन्द्यावर्त्त पूजन के लिए एक ही पट्टक आवश्यक माना जाता था। दिक्पालों का पूजन करने हेतु वेदिका के ऊपर पंचवर्णी चूर्ण से दिक्पालों का आलेखन कर लिया जाता था।
श्रीचन्द्रसरि की प्रतिष्ठा पद्धति में दिक्पालों के पूजन हेतु एक पट्टा स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व में आया। इस प्रकार विक्रम की 12 वीं शती से लेकर 15 वीं शती पर्यन्त प्रतिष्ठाकल्पों में नन्द्यावर्त और दिक्पाल पूजन के दो पट्टे प्रतिष्ठा उपकरणों में गिने जाते रहे। ___ श्री विशालराज शिष्यकृत प्रतिष्ठाकल्प में उपर्युक्त दो पट्टों के उपरान्त तीसरा 'नवग्रह' का पट्ट अस्तित्व में आया। इससे पूर्व कोई आचार्य नन्द्यावर्त के अंतिम वलय में नवग्रहों का पूजन करवाते थे, तो कोई आचार्य जिनबिम्ब के चरणों के नीचे नवग्रह का पूजन करवाते थे, परन्तु नवग्रह पट्ट का स्वतन्त्र अस्तित्व किसी ने भी स्वाकीर नहीं किया था। विक्रम की 16 वीं शती के प्रारम्भ से नवग्रह का पट्ट प्रचलन में आया । उस समय से प्रतिष्ठा विधि में तीन पट्ट उपकरण के रूप में मान्य हुए।
विक्रम संवत् 1848 से पूर्व रचित विधि ग्रन्थों में अष्टमंगल हेतु स्वतन्त्र पट्ट की आवश्यकता स्वीकार नहीं की गई है। यद्यपि आचारदिनकर में अष्टमंगल पट्ट का उल्लेख है परन्तु उस काल में अष्टमंगल पूजन के लिए पट्टा की आवश्यकता नहीं मानी जाती थी। स्वर्णजल से शुद्ध की गई भूमि के ऊपर अक्षतों द्वारा अष्टमंगल का आलेखन किया जाता था।