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468... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
मुख्य कारण यह है कि तीर्थंकरों के जन्म के पश्चात इन्द्रादि देव-देवीगण प्रभु का 1008 कलश से अभिषेक करते हैं । उसी के अनुकरणार्थ अंतिम अभिषेक 108 कलश द्वारा किया जाता है। इस अभिषेक का दूसरा प्रयोजन यह है कि इससे पूर्व अभिषेक में प्रयुक्त की गई औषधियों का अंश मात्र भी जिनबिंब पर रह जाए तो प्रतिमा के खण्डित आदि होने की संभावना बन सकती है, क्योंकि कई औषधियाँ क्षार गुण वाली भी होती हैं, जिसका प्रयोग कुछ समय के लिए ही लाभकारी है।
यहाँ ध्यातव्य है कि 18 अभिषेक निर्दिष्ट क्रम के अनुसार ही करने चाहिए, क्योंकि प्रत्येक औषधि वर्ग के अपने विशिष्ट लक्षण हैं। पूर्वाचार्यों ने यह क्रम अनेक दृष्टियों को केन्द्र में रखकर निश्चित किया है, अतः अठारह अभिषेक की क्रम विधि भी महत्वपूर्ण है ।
तुलना - अठारह अभिषेक नवीन बिम्बों के शुद्धिकरण एवं आत्मविशोधन के उद्देश्य से किया जाने वाला अद्वितीय अनुष्ठान है।
यदि इस विधि के ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पक्ष का अध्ययन किया जाए तो कई नवीन तथ्य प्रकट होते हैं।
यदि श्वेताम्बर परम्परा के प्रतिष्ठा कल्पों अथवा आगम ग्रन्थों का अवलोकन किया जाए तो आगम साहित्य में लगभग इस विषयक कोई चर्चा नहीं है। प्रतिष्ठा कल्पों के सम्बन्ध में कहा जाए तो सर्वप्रथम निर्वाणकलिका (पृ.31-32) में अभिषेक की सामग्री मात्र का उल्लेख मिलता है । तदनन्तर अभिषेक की एक सुव्यवस्थित विधि श्रीचन्द्रसूरि की प्रतिष्ठा पद्धति एवं उसके पश्चात विधिमार्गप्रपा में प्राप्त होती है। उसके बाद आचार दिनकर, गुणरत्नसूरि प्रतिष्ठाकल्प, सकलचन्द्र प्रतिष्ठाकल्प इत्यादि में देखी जाती है।
इस वर्णन से सिद्ध होता है कि 18 अभिषेकों की क्रमबद्ध विधि 13 वीं शती के लगभग अस्तित्व में आई होगी। इससे पूर्व यह अनुष्ठान सामान्य रूप से अथवा भिन्न तरीकों से करवाया जाता होगा, ऐसा अनुमान होता है।
यदि इस विषय में तत्सम्बन्धी ग्रन्थों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो उनमें नाम, क्रम, संख्या आदि को लेकर किंचित भिन्नताएँ देखी जाती हैं जिसका मुख्य कारण परम्पराओं की भिन्न-भिन्न मान्यताएँ कहा जा सकता है ।