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444... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन 33. आचार दिनकर, पृ. 205-206 34. कल्याण कलिका, पृ. 16-17 35. वास्तुसार प्रकरण, 3/63-64 36. वही, 3/67 37. गिह देवालय सिहरे, धयदंडं नो करिज्जइ कयावि। आमलसारं कलसं, कीरइ इअ भणिय सत्थेहिं ।
(क) वास्तुसार प्रकरण, 3/68
___ (ख) रत्नाकर, 12/208 38. भित्ति संलग्न बिम्बश्च, पुरुषः सर्वथाऽशुभः । चित्रमयाश्च नागाद्या, भित्तौ चैव शुभावहाः ॥
शिल्प रत्नाकर, 12/204 39. कर्ण प्रतिरथ भद्रोरूश्रृंगतिलकान्वितः । काष्ठ प्रासादः शिखरी, प्रोक्तो तीर्थ शुभावहः ॥
वही, 12/209 40. (क) उमास्वामी श्रावकाचार, 101-104
(ख) आचार दिनकर, पृ. 142 41. नेमिश्च मल्लिनाथश्च, वीरो वैराग्य कारकः । त्रयो वै मंदिरे स्थाप्या:, शुभदा न गृहे मताः॥
(क) शिल्प रत्नाकर, 12/105
(ख) आचार दिनकर, पृ. 142
(ग) प्रतिष्ठाकल्प, उपाध्याय सकलचन्द्र 42. एकांगुला भवेत् श्रेष्ठा, द्वयंगुला धननाशिका। त्रयंगुला वृद्धिदा ज्ञेया, वर्जयेत् चतुरंगुलाम् ॥
पंचांगुला भवेद् वृद्धि रुद्धगं च षडंगुला।
सप्तांगुला नवा वृद्धि हीना चाष्टांगुला सदा॥ नवांगुला सुतं दद्याद्, द्रव्य हानिर्दशांगुला। एकादशांगुलं बिम्ब, सद्य: कामार्थ सिद्धिदम् ॥
शिल्प रत्नाकर, 12/149-151