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422... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
3. “पद' के स्थान पर इन्द्र, सामानिक, पारिषद्य, त्रायस्त्रिंश, अंगरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोगिक, किल्बिषिक, लौकान्तिक, तिर्यक् जृम्भक आदि शब्द बोलें। ___4. 'व्यापार' के स्थान पर उनके गुणों का कीर्तन करें अथवा उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों का उल्लेख करें।
5. 'देव' के स्थान पर प्रतिष्ठाप्य देव का नाम बोलें। इसी तरह चारों निकायों के देवियों की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए।
यहाँ विशेष उल्लेखनीय यह है कि गणिपिटक, शासन यक्ष, शासन यक्षिणी, ब्रह्मशान्ति यक्ष आदि की प्रतिष्ठा विधि का समावेश व्यंतर देवों में हो जाता है।
कन्दर्प आदि की प्रतिष्ठा विधि का समावेश वैमानिक देवों में, लोकपालों की प्रतिष्ठा विधि का समावेश भवनपति देवों में, दिक्पालों की प्रतिष्ठा विधि का अन्तर्भाव व्यंतर देवों में तथा ज्योतिष देवों की प्रतिष्ठा विधि का समावेश ग्रहों की प्रतिष्ठा में हो जाता है।63
।। इति चतुर्निकाय देवमूर्ति प्रतिष्ठा विधि ।।
ग्रहों की प्रतिष्ठा विधि सभी मनुष्यों का जीवन सुख-दुःख का समन्वित रूप है। पुण्य के उदय से सुख एवं पाप कर्म के उदय से दुःख की प्राप्ति होती है। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों के उदय अस्त के रूप में इसे प्रदर्शित किया जाता है। जब मनुष्य विपरीत ग्रहों के उदय के कारण दुखी होता है तो उसके निवारण के लिए भगवान की शरण में आता है। जैनाचार्यों ने नवग्रहों के उपद्रवों का शमन करने के लिए पृथक्-पृथक् तीर्थंकरों के नाम स्मरण (जाप) एवं पूजा का उपदेश दिया है। तीर्थंकर पुरुषों की भक्ति से पुण्य कर्मों का बंधन होता है और उस पुण्य प्रभाव से प्रतिकूल समय शीघ्र व्यतीत हो जाता है।
नवग्रह की आराधना के लिए तत्सम्बन्धी तीर्थंकरों के चैत्य बनाये जाते हैं। यह जिनालय ग्रहों की अपेक्षा पृथक्-पृथक् भी बना सकते हैं और प्रत्येक ग्रह के तीर्थंकरों की एक साथ भी स्थापना की जा सकती है।
आचार्य भद्रबाहु के अनुसार सूर्यादि कोई भी ग्रह अशुभ हो तो उसके उपशमनार्थ अमुक-अमुक तीर्थंकर की पूजोपासना करनी चाहिए। वह सारणी निम्नानुसार है