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264... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन उनकी छाया भी नहीं पड़ती हैं। केवलज्ञान के बाद उनके देवकृत चौदह अतिशय भी प्रकट हो जाते हैं। वे अर्द्धमागधी भाषा (जिसमें अठारह महाभाषाएँ एवं सात सौ लघुभाषाएँ होती है) में उपदेश देते हैं। सभी जीव मैत्री भाव से रहते हैं। अन्य अतिशयों में दिव्यध्वनि का बारह योजन तक सुनायी देना, दुन्दुभि का नाद होना, आकाश से पुष्प वर्षा होना, चौसठ चामरों का ढलना, सब ऋतुओं के फल-फूल एक साथ प्रकट हो जाना, जमीन कंटक रहित दर्पण की तरह हो जाना, सुगन्धित जलवृष्टि होना, नदी-तालाब जल से परिपूर्ण हो जाना, आगेआगे धर्मचक्र चलना आदि प्रकट होते हैं।
केवलज्ञान के प्रभाव से बारह अतिशय एवं अष्ट मंगल भी उत्पन्न हो जाते हैं। बारह अतिशयों में अष्ट प्रातिहार्य सदैव उनके साथ रहते हैं। अरिहंत अवस्था में चार घाती कर्मों का अभाव होने से आत्म स्वातन्त्र्य प्रकट हो जाता है। इन पाँच कल्याणकों के दृश्य देखकर संसारी जीव अभिभूत होता हुआ आत्म स्वतन्त्रता के प्राप्ति की भावना करता है।
तीर्थंकर प्रभु जब भी चलते हैं तो उनके चरण रखने के लिए स्वर्ण पुष्पों की रचना होती है, भूमि जीव-जन्तु से रहित हो जाती हैं। कट्टर प्रतिद्वेषी भी उन्हें देखते ही शान्त हो जाता है। उनकी देशना सुनकर अनेक जीव प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं। जो प्रव्रज्या ग्रहण करने में सक्षम नहीं होते, वे देश विरति धारण करते हैं। इसी प्रकार अनेक तिर्यंच एवं देव-देवी गण भी परमात्मा से सद्बोध प्राप्त करते हैं।
वर्तमान में केवलज्ञान कल्याणक की आराधना के रूप में अंजनशलाका विधान संपन्न किया जाता है। जिस प्रकार केवलज्ञान के द्वारा परमात्मा के ज्ञान चक्षु प्रकट होते हैं, वैसे ही अंजनशलाका अनुष्ठान जिन प्रतिमा के ज्ञान नेत्रों के उद्घाटित होने की सूचक है। जिस प्रकार केवलज्ञान पंच कल्याणकों में महत्त्वपूर्ण है वैसे ही अंजनशलाका तीर्थङ्कर परमात्मा की प्राण प्रतिष्ठा का मुख्य प्रसंग है। केवलज्ञान कल्याणक के समय क्या भावना करें?
पंचकल्याणक महोत्सव में केवलज्ञान कल्याणक की उजमणी करते हुए निम्न भावनाएँ करनी चाहिए।
हे परमात्मन्! जिस प्रकार आपने अपनी साधना के द्वारा अनंत ज्ञान गुण