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234... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन पाखण्डों और आडम्बरों का उन्मूलन कर मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह लोकोपकार तीर्थङ्कर से ही संभव है। अन्य मुक्त पुरुष तो आत्म आनन्द के असीम सागर में निमग्न रहते हैं। विकार ग्रस्त मानव समाज के जीणोद्धार का पुनीत और दुरुह कार्य तीर्थङ्कर द्वारा ही संपन्न होता है। तीर्थङ्कर और सामान्य मुक्तात्माओं में यह अन्तर केवल-ज्ञान प्राप्ति से निर्वाण प्राप्ति के मध्य की अवधि में ही दृष्टिगत होता है। निर्वाण के पश्चात तो तीर्थङ्कर की आत्मा भी अन्य मुक्तात्माओं की भाँति ही हो जाती है। दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता। कैसे बनते हैं तीर्थङ्कर?
तीर्थङ्करत्व की उपलब्धि सहज नहीं है। हर एक साधक आत्म साधना के द्वारा मोक्ष तो प्राप्त कर सकता है, पर तीर्थङ्कर नहीं बन सकता। तीर्थङ्करत्व की उपलब्धि विरले साधकों को ही होती है। इसके लिए अनेक जन्मों की साधना और कुछ विशिष्ट भावनाएँ अपेक्षित होती है। विश्व कल्याण की भावना से अनुप्राणित साधक जब किसी केवलज्ञानी अथवा श्रुतकेवली के चरणों में बैठकर लोक कल्याण की सुदृढ़ भावना भाता है तभी तीर्थङ्कर जैसी क्षमता को प्रदान करने में समर्थ “तीर्थङ्कर प्रकृति” नाम के महापुण्य कर्म का बन्ध करता है। यह तीर्थङ्कर नाम कर्म ही तीर्थङ्करत्व का बीज है। इसके लिए सोलह कारण भावनाएँ बतायी गयी हैं। सोलह कारण भावना
1. दर्शन विशुद्धि- लोक कल्याण की भावना से अनुप्राणित होना दर्शन विशुद्धि है।
2. विनय संपन्नता- सम्यग्ज्ञान आदि मोक्षमार्ग और उसके साधन गुरु आदि के प्रति हार्दिक आदर भाव रखना विनय सम्पन्नता है।
3. शील व्रतानतिचार- अहिंसा, सत्य आदि व्रत हैं तथा इनके पालन में सहायक क्रोध आदि का त्याग शील कहलाता है। व्रत और शीलों का निर्दोष रीति से पालन करना शीलवतानतिचार है।
4. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग- निरन्तर ज्ञानाभ्यास में लगे रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है। ___5. अभीक्ष्ण संवेग- सांसारिक विषय-भोगों से डरते रहना अभीक्ष्ण संवेग है।