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अन्तर्नाद
जैन विधि-विधानों में प्रतिष्ठा एक बहुचर्चित महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान है। सामाजिक एवं सामुदायिक स्तर पर आयोजित होने वाले क्रिया विधानों में यह शीर्ष स्थान पर रहा हुआ है। जिस प्रकार एक लड़की का दाम्पत्य सम्बन्ध किसी पुरुष के साथ तब ही माना जाता है जब उसके साथ उसका विवाह सम्पन्न हो जाए उसी प्रकार नव निर्मित मन्दिर में पूर्णता तब ही आती है जब मंत्र विधानों द्वारा परमात्मा जिनालय में ही नहीं जन-जन के मन मन्दिर में भी प्रतिष्ठित हो जाए।
वस्तुत: प्रतिष्ठा का मूल उद्देश्य जन मानस में परमात्मा एवं परमात्म वाणी को स्थापित करना तथा उसे आचरण का आधार बनाना है। वर्तमान में प्रतिष्ठा का स्वरूप, उसके मूलभूत हेतु एवं लक्ष्यों के प्रति किसी की दृष्टि नहीं है। अधिकांश प्रतिष्ठाओं की सफलता का अनुमान उपस्थित जन मेदिनी एवं चढ़ावों द्वारा हुई आवक के द्वारा किया जाता है। जबकि इसकी मौलिकता एवं प्रभावकता प्रतिष्ठाकर्ता तथा जन समुदाय में हुए धर्म संस्कारों के सिंचन पर निर्भर है। एक प्रतिष्ठा विधान के द्वारा किसी नगर के हजारों वर्षों तक के सुन्दर भविष्य की स्थापना हो जाती है।
विदुषी साध्वी सौम्यगुणाजी द्वारा किया गया यह शोध कार्य नव्य उन्मेषक, तथ्यपूर्ण एवं श्लाघनीय है। इन्होंने अथक परिश्रम करके न केवल सामग्री का संचय किया, अपितु उसे एक समीक्षक की दृष्टि से भी उसका विवेचन किया है। साध्वीजी की दृष्टि अनुसंधित्सु की है, जिसके फलस्वरूप उन्होंने जैनागमों का विस्तृत अध्ययन कर तथा विषय सम्बन्धी सामग्री का संकलन कर उसका विषयवार वर्गीकरण किया है। यह उनकी सूक्ष्मग्राही शक्ति का भी परिचायक है।
आशा है कि यह पुस्तक जैन साधकों को प्रतिष्ठा विधान के नव्य घटकों से परिचित करवाएगी। विविध विधानों की वैज्ञानिकता, ऐतिहासिकता एवं मौलिकता से मुखर करवाते हुए युवा वर्ग को धर्म अनुष्ठानों की ओर आकर्षित करेगी। इस पुस्तक की रचना में साध्वीजी की प्रज्ञा, साधना और श्रम अत्यंत स्पष्ट है। यह कृति सबके लिए ज्ञानवर्धक, उपयोगी और संग्रहणीय सिद्ध हो यही शुभाशंसा है।
आर्या शशिप्रभा श्री