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जिनबिम्ब निर्माण की शास्त्र विहित विधि ...173 निर्माणकर्ता सूत्रधार से अनुरोधपूर्वक यह कहे कि 'हे सूत्रधार! इस निर्माण कार्य के द्वारा आपने जो पुण्य-धन प्राप्त किया है वह मुझे प्रदान कीजिए।'
इसके प्रत्युत्तर में सूत्रधार आदरपूर्वक यह कहे कि- 'हे स्वामिन्! आपका यह निर्माण कार्य अक्षय रहे। आज तक मेरा था, अब यह आपका हुआ।'
तत्पश्चात निर्माणकर्ता विपुल धन, वस्त्र, अलंकार, वाहन आदि के द्वारा शिल्पकार का योग्य सम्मान करें।
इसी के साथ स्वयं की क्षमता के अनुरूप सहयोगी कारीगरों तथा व्यक्तियों का भी भोजन, ताम्बूल आदि के द्वारा यथोचित सम्मान करना चाहिए।
आचार्य हरिभद्रसूरि ने शिल्पी के मूल्य को चुकाने के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात कही है कि शिल्पी के परिश्रम अथवा कार्य के अनुसार उसकी कीमत नहीं चुकाये, अपितु स्वयं की धन-समृद्धि के अनुसार भुगतान करे। इसका रहस्य यह है कि शिल्पी को सेठ की संपत्ति का अनुमान हो जाये। जिससे प्रतिमा गढ़ने का कार्य उत्तरोत्तर उल्लास पूर्वक हो इसलिए निज वैभव के अनुरूप मूल्य देना चाहिए।
• जिन प्रतिमा के निर्माण काल में शिल्पी प्रसन्नचित्त रहे, तद्हेतु उसके अनुकूल भोजन, स्थान आदि का ध्यान रखना चाहिए। शिल्पी प्रसन्न हो तभी प्रतिमा में नूर आ सकता है यह स्मरण में रखना चाहिए।
• जिन प्रतिमा के निर्माण काल में शिल्पी की प्रशंसा आदि करते रहना चाहिए, जिससे उसका उत्साह प्रवर्धमान रहे। दूषित शिल्पी के साथ मूल्य आदि का निर्धारण क्यों?
प्राचीन ग्रन्थों के मतानुसार मन्दिर निर्माण, मूर्ति घड़न आदि का कार्य व्यसन मुक्त एवं निर्लोभता आदि गुणों से सम्पन्न शिल्पी के निर्देशन में ही करवाना चाहिए। योग्य शिल्पी की प्राप्ति न होने पर दूषित शिल्पी से मूर्ति का निर्माण करवाना पड़े तो उससे पहले ही मूल्य निर्धारित कर लेना चाहिए जैसेअमुक परिमाण में पच्चीस बिम्बों का निर्माण करना है उसके लिए अमुक राशि का भुगतान अंशत: किया जायेगा।
दूषित शिल्पी के साथ मूल्य निश्चित करने का आशय यह है कि वह उस राशि का उपयोग परस्त्रीगमन, जुआ, शराब आदि दुर्व्यसनों में नहीं कर सकेगा
और इस प्रकार देवद्रव्य के भक्षण का दोष भी नहीं लगेगा। दूसरे, अंशत: भुगतान करने पर वह उपयोगी वस्तुओं को ही खरीद सकेगा।