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134... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
6. दरवाजा भीतर की ओर ही खुलना चाहिए, अन्यथा रोग का कारण बनता है। 7. दरवाजे की चौड़ाई एवं ऊँचाई निर्धारित मान के अनुकूल रखें अन्यथा विषम परिस्थितियाँ जैसे- भय, अकारण चिन्ता, स्वास्थ्य हानि अकस्मात धन नाश आदि स्थितियाँ बन सकती हैं।
8. यदि द्वार स्वतः खुले या बन्द होवें तो उसे अशुभ समझें। इससे व्याधि, पीड़ा, वंश हानि की संभावना हो सकती है।
9. यदि द्वार पत्थर का हो तो चौखट पत्थर की बनायें ।
10. दरवाजे यदि लकड़ी के हों तो लकड़ी की चौखट तथा लोहे के हों तो लोहे की चौखट लगायें।
11. सुरक्षा की दृष्टि से गर्भगृह एवं मूल द्वार के अन्दर चैनल गेट लगा सकते हैं किन्तु इनसे भगवान की दृष्टि का अवरोध नहीं होना चाहिए ।
12. यदि संभव हो तो मन्दिर में चिटखनी, सांकल, कब्जे आदि पीतल के लगायें, लोहे के न लगाएं।
13. बिना द्वार का मन्दिर कदापि न बनायें। यह समाज के लिए अशुभ, हानिकारक एवं नेत्र रोगों की वृद्धि का निमित्त होता है।
14. दरवाजे एवं चौखट एक ही लकड़ी के बनवायें। लोहे के दरवाजे अथवा शटर न बनवायें।
15. एक दीवार में तीन दरवाजे या तीन खिड़की न रखें। एक दरवाजा एवं तीन खिड़की रख सकते हैं।
16. पूरी वास्तु में दरवाजे सम संख्या में हों किन्तु दशक में न हों जैसे - 2, 4, 6, 8, 12, 14, 16 में हों, किन्तु 20, 20, 30 न हों। द्वार का आकार, उसका अनुपात, विविध प्रासादों के आधार पर मान गणना, द्वार की आय आदि की जानकारी शिल्प रत्नाकर आदि ग्रन्थों के आधार पर की जा सकती है।
द्वार शाखा
द्वार के दोनों पार्श्व स्तम्भों में कई फालना या भाग बनाये जाते हैं इन्हें द्वार शाखा कहते हैं अथवा द्वार की चौखट के एक पक्खा को द्वार शाखा कहा जाता है। द्वार एक से प्रारम्भ कर नौ शाखाओं तक के होते हैं।
महेश के प्रासाद में नव शाखा का, अन्य देवों के प्रासाद में सात शाखा