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128... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन स्थापित की गई हो उस देव की मूर्ति द्वार के उत्तरंग में बनाई जानी चाहिए। शाखाओं में उस परमात्मा के यक्ष-यक्षिणी आदि का रूप बनाना चाहिए। अनेक स्थानों पर उत्तरंग की जगह विघ्ननाश के रूप में गणेश प्रतिमा की भी स्थापना करते हैं।500
वास्तुविद्या के अनुसार उत्तरंग की ऊँचाई के इक्कीस भाग करें। उनमें ढाई भाग की पत्रशाखा एवं त्रिशाखा बनायें। उसके ऊपर तीन भाग का मालाघर, पौन भाग की छज्जी, पौन भाग की फालना, सात भाग की रथिका, एक भाग का कण्ठ और छह भाग का उद्गम बनायें। इस प्रकार का उत्तरंग मंदिर की शोभा में वृद्धि करने के साथ-साथ पुण्यवर्धक भी माना गया है।51
Sil उद्गम
MG उदगमा
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रथिका छज्जी
व मालाधर
शाखा Sot]
उत्तरंग महाद्वार
मन्दिर के परिसर में प्रवेश करने के स्थान पर एक द्वार बनाया जाता है उसे महाद्वार कहते हैं। यह द्वार प्रांगण के पूर्व, उत्तर या ईशान कोण में बनाना चाहिए। ___ इस महाद्वार की रचना दो बड़े चौकोर स्तम्भों के आधार पर की जाती है। इन स्तम्भों के ऊपर नगार खाना और सुन्दर तोरण या कमानी होती है। इस द्वार की ऊँचाई लगभग 15 फुट रखना चाहिए तथा चौड़ाई इतनी रखें कि भारी वाहन, रथ आदि आसानी से प्रवेश कर सकें।
यह द्वार चौकोर एवं भीतर की ओर खुलने वाला होना चाहिए। इस द्वार के निर्माण में चौड़ाई और ऊँचाई का अनुपात प्रवेश द्वार की भाँति ही समझना चाहिए।