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124... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
मण्डोवर ( भित्ति) निर्माण के कुछ आवश्यक निर्देश
• मन्दिरों की सभी दीवारें एक सूत्र में बनाई जायें, यदि दीवारों की श्रेणी में एकरूपता नहीं रहती है तो समाज के लिए कष्टदायी होता है।
• मन्दिर की दीवारों में दरार पड़ना, फटना, दीवार सीधी न होना, यह सब मन्दिर एवं संघ दोनों के लिए हानिकारक है। अतएव दीवार का निर्माण सावधानी पूर्वक करवाना चाहिए।
• मन्दिर की दीवारों का कोण 90° समकोण रखना आवश्यक है वरना टेढ़ापन रहने पर विघ्नकारी होता है ।
• मन्दिर की दीवारों में सीलन ( नमी) रहना रोगोत्पत्ति का सूचक है इसलिए ऐसे मटेरियल का उपयोग न करें जिससे सीलन आये।
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पूर्व दिशा की दीवार में दरार पड़ने पर सामाजिक मन-मुटाव होता है। पश्चिम दिशा की दीवार में दरार पड़ने पर सम्पत्ति नाश एवं चोरी का भय उत्पन्न होता है।
• उत्तर दिशा की दीवार के खण्डित होने पर पारस्परिक वैमनस्य बढ़ता है। • दक्षिण दिशा की दीवार में दरार पड़ने पर रोग वृद्धि एवं मृत्यु तुल्य कष्ट आते हैं।
स्तम्भ
जिनालय के ठोस निर्माण में दीवार और स्तम्भ मुख्य आधार रूप होते हैं। इन दोनों के सहारे मन्दिर का ढाँचा तैयार होता है। यदि स्तंभ न हो तो छत एवं शिखर का सम्पूर्ण भार अकेले मण्डोवर पर आ जाता है अतएव परिमाण के अनुरूप स्तम्भ का निर्माण किया जाना चाहिए।
आकृति की अपेक्षा पाँच प्रकार के स्तम्भ स्थापित किये जाते हैं.
1. चतुरस्त्र - चार कोने वाले स्तम्भ 2. भद्रक - भद्रयुक्त स्तम्भ, 3. वर्धमान - प्रतिरथ युक्त स्तम्भ 4. अष्टास्त्र - आठ कोने वाला स्तम्भ 5. स्वस्तिक - साथिया की आकृति वाला स्तम्भ ।
ध्यातव्य है कि मण्डोवर एवं स्तम्भ के थरों में एकरूपता रखनी चाहिए, इससे खंभे अधिक शोभायमान होते हैं । प्रासादों की विविधता के अनुसार स्तम्भ रचना भी अनेक प्रकार की होती है।
स्तम्भ की विभिन्न शैलियों के कुछ नमूने -