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86... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
भूमि कैसी हो?
आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार वास्तु विद्या और धर्मशास्त्र में अनुज्ञापित मर्यादा का उल्लंघन किये बिना शुद्ध भूमि का ग्रहण करना चाहिए । भूमि दो प्रकार से शुद्ध होनी चाहिए। भूमि में काँटे, हड्डियाँ आदि न हों तथा आस-पास में रहने वाले पड़ोसियों को उद्वेग न हों यह द्रव्य शुद्धि है और जिस भूमि पर भविष्य में अनेक प्रकार के कल्याण की संभावनाएँ प्रतीत होती हो, वह भाव शुद्धि हैं | 2
यहाँ प्रश्न होता है कि दूसरों के लिए पीड़ाकारक न हो ऐसी भूमि ग्रहण क्यों करना चाहिए? इसका समाधान करते हुए आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि पर पीड़ा के परिहार हेतु विशेष प्रयत्न करना यह धर्म में प्रवृत्ति करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए धर्म सिद्धि का मुख्य कारण बनता है। पर पीड़ा परिहार की भावना युक्त की गई आराधना से शुभ का अनुबन्ध होता है। इसीलिए भगवान महावीर ने तापस आश्रम के मालिक के मन में हुई अप्रीति को दूर करने के लिए चातुर्मास में भी विहार किया ।
मन्दिर निर्माण कर्त्ता को निर्माण काल में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि देरासर के समीप में रहने वाले लोग स्वजना आदि सम्बन्धों से रहित होने पर भी उनका सन्मान करें, क्योंकि उनका बहुमान करने से परमात्म भक्ति के परिणाम प्रकट होते हैं और उससे अन्यों में भी धर्म रुचि उत्पन्न होती है | 4 शुभ भूमि के लक्षण
भूमि का चयन करते समय उसका रूप, रस, गंध, वर्ण और परिकर देखा जाता है। शास्त्रोक्त विधियों से भूमि के नीचे भी अपवित्र शल्य न हों उसका भी निरीक्षण करते हैं।
बृहत् संहिता के अनुसार जो भूमि अनेक प्रशंसनीय औषधियाँ एवं वृक्ष लताओं से शोभित हो, जिसका स्वाद मधुर हो, गंध उत्तम हो, स्निग्ध हो, गड्डों एवं छिद्रों से रहित हो, आनन्दवर्धक हो वह मन्दिर निर्माण के लिए श्रेष्ठ है 1 5 वास्तुसार प्रकरण के उल्लेखानुसार जो भूमि वर्गाकार हो, दीमक रहित हो, कटी-फटी न हो, काँटा आदि शल्य से रहित हो तथा उसका उतार (ढलान ) पूर्व, ईशान अथवा उत्तर की ओर हो वह भूमि वास्तु निर्माण और मन्दिर निर्माण सभी के लिए सुखकारी होती है । "
शुभ लक्षणवाली भूमि के फल
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देवशिल्प में उल्लिखित निर्देश के अनुसार भद्रपीठ भूमि अर्थात जो भूमि मध्य में ऊँची तथा चारों ओर से नीची हो वह जिनालय निर्माण हेतु शुभ