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56... प्रतिष्ठा विधि का मौलिक विवेचन
उत्तरगुण-अष्ट प्रवचन माता इन गुणों से भ्रष्ट साधु न रहते हों वह आयतन कहलाता है।
2. जिस चैत्य की व्यवस्था, आय-व्यय लेखन और उगाही आदि श्रावक करते हों और जो शिथिलाचारी साधुओं के उद्देश्य से उनके भक्त श्रावकों द्वारा द्रव्य व्यय कर बनाया गया हो, वह अनिश्राकृत कहलाता है।
3. जिस चैत्य में रात्रि के समय न नन्दी होती हो, न पूजा बलि आदि होती हो, न स्त्रियाँ जाती हों, न नृत्य होता हो और न साधु जाते हों, वह विधि चैत्य कहलाता है।
उत्सर्गतः सम्यग्दृष्टि श्रावकों और साधुओं को उपर्युक्त तीन प्रकार के चैत्यों में ही जाना चाहिए। आपवादिक कारण उपस्थित होने पर अनायतन आदि चैत्यों में भी जा सकते हैं जैसे- निश्राकृत आदि चैत्य में महापूजा आदि हो, राजा की ओर से निमन्त्रण हो, पार्श्वस्थ आदि साधुओं के आज्ञाकारी श्रावकों का आग्रह हो, न जाने पर शंका करते हो, शासन प्रभावना होती हो, जाने से कई अन्यजन धर्म प्रवृत्ति करते हों, न जाने से शासन की निन्दा एवं तिरस्कार होता हो, ऐसी स्थिति में जाना उचित है।
यहाँ कोई शंका करे कि जो मुक्ति के साधनभूत नहीं है वहाँ क्यों जाना चाहिए? उसका समाधान यह है कि जहाँ विधि चैत्य नहीं होता, वहाँ के ‘निश्राकृत आयतन’ चैत्य बनाने वाले श्रावक व्याख्यान के लिए सद्गुरुओं को निमन्त्रण देते हैं और सद्गुरु उन श्रावकों की भाववृद्धि के लिए चैत्य में जाकर व्याख्यान करते हैं।
श्रुतधरों ने सामान्यतः पाँच प्रकार के चैत्यों का प्रतिपादन किया हैभत्ती मंगल चेइय, निस्सकड अनिस्सकड चेइए वावि । सासय चेइय पंचम, उवइट्ठ जिणवरिं देहिं ।। 1. भक्तिकृत चैत्य 2. मंगलकृत चैत्य 3. निश्राकृत चैत्य 4. अनिश्राकृत चैत्य और 5. शाश्वत चैत्य ।
1. श्री तीर्थंकर परमात्मा की भक्ति से आप्लावित होकर भरत चक्रवर्ती आदि श्रावकों ने अपरिमित धन का सदुपयोग कर श्री अष्टापद, श्री शत्रुंजय आदि महातीर्थों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण करवाया, जो अनेक जीवों के सम्यक्त्व प्राप्ति एवं सम्यग्दर्शन के स्थिरीकरण में निमित्तभूत बनें, वे भक्ति चैत्य हैं।