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396... पूजा विधि के रहस्यों की मूल्यवत्ता - मनोविज्ञान एवं अध्यात्म...
आज भी कई प्राचीन तीर्थों में जहाँ जिनप्रतिमाएँ बहुत अधिक संख्या में है वहाँ प्रक्षाल क्रिया बहुत ही असावधानी पूर्वक की जाती है। कई बार तो पुजारी मात्र गिले वस्त्र से पोंछकर केशर की टीकी लगा देते हैं। अधिकांशतः देखा जाता है कि दर्शनार्थी वर्ग भी मुख्य रूप से मूलनायक प्रतिमा को ही प्रमुखता देता है शेष प्रतिमाओं की पूजा छोड़िए दर्शन करना भी उन्हें आवश्यक प्रतीत नहीं होता। इन परिस्थितियों में उनकी नित्यपूजा आदि अवश्य विचारणीय है?
उपर्युक्त तथ्यों के माध्यम से हम वर्तमान प्रचलित नित्य प्रक्षाल का विरोध कदापि नहीं कर रहे हैं। वर्तमान जीवनशैली को देखते हुए पूजा सम्बन्धी नियमों की नित्यता एवं नियमबद्धता अत्यावश्यक है। वरना हर कोई स्वेच्छा से मनमर्जी अनुसार जिनपूजा करने लगेगा। अतः जहाँ श्रावक वर्ग रुचिवंत हो, जागरूक हो एवं सम्मानपूर्वक जिनभक्ति-पूजा का कार्य सम्पन्न करता हो वहाँ जिनपूजा - भक्ति रोज करनी ही चाहिए परंतु ऐसे स्थान जहाँ मात्र परम्परा के निर्वाह के रूप में यह कार्य जैसे-तैसे पुजारियों द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं एवं प्रतिमाओं को मात्र नुकसान पहुँचाकर आशातना की जा रही है वहाँ परिस्थितिवश आए परिवर्तनों के हार्द को समझते हुए सम्यक निर्णय लेना चाहिए।
आज की भौतिक भोगवादी विचारधारा में व्यक्ति का झुकाव जहाँ सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति और भोग की ओर बढ़ रहा है। वहाँ पर जिनपूजा प्रक्षाल आदि का नित्यक्रम व्यक्ति को त्याग मार्ग पर अग्रसर करता है। रागात्मक प्रवृत्तियों से हटाकर वीतरागत्व के पथ पर बढ़ाता है। प्रभु पूजा कर्मबंध में हेतुभूत बन रहे द्रव्य को कर्ममुक्ति में सहायक बनाती है। इसी के साथ आज व्यक्ति का अधिकांश समय जहाँ सिर्फ 'भजकलद्वारम्' के कार्य में जाता है वहाँ नित्य जिनपूजा आदि का नियम उसे पुनः पुनः अपने स्वरूप का भान करवाकर उसे संसार के दल-दल से बाहर निकालती है।
आज आवश्यकता है तो प्रत्येक क्रिया के पीछे रहे हार्द को समझने की तथा परम्परा के नाम पर आई रूढ़िवादिता को दूर करने की। इसी के साथ श्रावक वर्ग को भी क्रिया-विधियों के प्रति जागरूक एवं ज्ञान समृद्ध बनना चाहिए जिससे मनोभावों का अधिक से अधिक जुड़ाव पुण्यमयी क्रियाओं में हो