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जिनपूजा सम्बन्धी विषयों की विविध पक्षीय तुलना... ...395 आदि क्रियाओं को फट-फट निपटाने के भावों ने प्रतिमाओं को बहुत क्षतिग्रस्त किया है। कितनी ही प्रतिमाएँ अविवेक के कारण खंडित हो जाती है, तो अनेक पंचतीर्थी, चौबीसी आदि अपने परिकर से ढीली होकर निकल जाती है। आजकल की नई प्रतिमाओं का हाल पुरानी प्रतिमाओं से ज्यादा खराब है। वालाकुंची के अतिप्रयोग से भी प्रतिमाएँ जल्दी घिस जाती है। मथुरा के जैन स्तूप से निकली कुषाण कालीन प्रतिमाएँ दो हजार वर्ष प्राचीन एवं 1400 वर्ष तक पूजित होने के बाद भी यथावत है उनकी नासिका का अग्रभाग या नाखून तक खण्डित नहीं है। वहीं आजकल की प्रतिमाओं की चमक अशुद्ध केसर आदि के कारण कम होती जा रही है तथा वालाकुंची के अतिप्रयोग एवं अंगलुंछनों के घिसारे लगने से कई बार छोटी प्रतिमाओं के चेहरे पर आँख-नाक आदि दिखाई भी नहीं देते। वसंतगढ़ के भूमितल से निकली हुई वि.सं. 749 में बनी हुई धातु प्रतिमाओं के छोटे से छोटे अंग-उपांग भी आज तक यथावत है। ये प्रतिमाएँ भी 600 वर्ष से अधिक समय तक पूजी गई हैं।
• यद्यपि मूर्तिपूजा के विरोध में कई बार स्वर उठे। जैसे कि आचार्य हरिभद्र के समय में मूर्तिपूजा निमित्त सामान्य हिंसा को लेकर ऊहापोह हुआ था परन्तु आचार्य हरिभद्रसूरि एवं अनेक श्रुतधर आचार्यों ने अपने ज्ञानबल, तर्कबल आदि के आधार पर उसे संभाल लिया। इसी प्रकार विक्रम की तेरहवीं शती में अचलगच्छीय आचार्यों ने फल-नैवेद्य-धान्य और दीपक पूजा का विरोध किया था किन्तु उसका भी कोई विशेष परिणाम नहीं देखा गया। परंतु नित्य स्नान एवं विलेपन की पद्धति का उद्भव होने के बाद धीरे-धीरे सामान्य जन मानस के भीतर विरोध का बीजारोपण हो रहा था। धनवानों की पूजा विषयक अति प्रवृत्तियों से आम जनता उब चुकी थी और इसी कारण जब लोकाशाह ने जिनपूजा एवं जिनमंदिर सम्बन्धी आडंबरों का विरोध किया तो सामान्य जनता यथार्थ तथ्य समझे बिना ही इसका समर्थन करने लगी। ऐसा नहीं था कि लोकाशाह बहुत बड़े विद्वान थे या जन मानस उनकी वाणी से अति प्रभावित था केवल जिनपूजा विषयक व्यय साध्य क्रिया-अनुष्ठानों से ऊबे हए जनमानस के लिए यह एक नया मार्ग था और इसी कारण अनेक लोग मूर्तिपूजा विरोधी आम्नाय से जुड़ते गए। इससे एक बहुत बड़ा वर्ग आज मूर्तिपूजा का विरोधी बन चुका है।