________________
अध्याय-10
श्रुत सागर से निकले समाधान के मोती
जैन धर्म के सिद्धान्त सरिता की एक मुख्य धारा है अनेकान्तवाद। इसे सापेक्षवाद या स्याद्वाद के नाम से भी जाना जाता है। सरल भाषा में कहें तो देश-काल-परिस्थिति के अनुसार विवेक पूर्वक सत्य का आचरण ही अनेकान्तवाद है। एक ही बात हर जगह और हर समय लागू नहीं हो सकती। द्रव्य जगत, भाव जगत आदि पर भी कई निर्णय निर्धारित होते हैं। ____जिनपूजा, जिनमंदिर आदि के विषय में भी कई ऐसे प्रश्न हैं जिनके विषय में विवेक पूर्वक परिस्थिति अनुसार निर्णय लेना चाहिए। वहाँ पर किसी एक बात को लेकर लकीर के फकीर नहीं बन सकते। भाव जगत की इसमें एक मुख्य भूमिका होती है। इस विषय में न तो आगम ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है, न ही अद्योपान्त पुस्तकों में, क्योंकि कई बार अपवाद मार्ग को राजमार्ग समझ कर उसे परम्परा बना दिया जाता है। अत: हम यहाँ पर जिन प्रश्नों की चर्चा कर रहे हैं, उनमें मतान्तर हो सकता है अतः दिए गए समाधान को ही राजमार्ग न समझें। अपितु स्वमति एवं विवेकपूर्वक परिस्थिति सापेक्ष निर्णय लें। ___ उदाहरणतया हम अपने दैनिक जीवन पर ही दृष्टि डालें तो इसे समझ सकते हैं। खांसी या बुखार की दवाई (Syrup) बच्चे-बड़े-युवा आदि को अलग-अलग प्रमाण में दी जाती है। यदि कोई यह कहे कि यह दवाई तो एक ही मात्रा में सबको देनी पड़ेगी तो वह उचित नहीं होगा और उसके बाद रोग का प्रमाण भी देखा जाता है। अत: सभी के लिए या हमेशा एक समान नियम लागू नहीं होते। किसी को भी इन प्रश्नों के समाधान को लेकर कोई शंका हो तो गुरुगम पूर्वक इसका निवारण करें।
शंका- भोमियाजी आदि अधिष्ठायक देवों की देहरी मंदिर के भीतर बनाना चाहिए या नहीं?
समाधान- अधिष्ठायक देव, गुरुमूर्ति आदि की स्थापना मूल गर्भगृह (गभारा) में नहीं हो सकती, रंगमंडप, सभामंडप आदि में कहीं भी हो सकती