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सात क्षेत्र विषयक विविध पक्षों का समीक्षात्मक अनुशीलन ... 339
जाती है जिससे मंदिर कार्यों का निर्वाह सम्यक प्रकार से होता रहे उसे कल्पित देवद्रव्य कहा जाता है अतः मंदिर व्यवस्था की कल्पना करके जो द्रव्य दिया जाए वह कल्पित देवद्रव्य है।
इसके अनुसार कल्पित देवद्रव्य का प्रयोग केशर, चंदन, बरास, धूप आदि पूजन की सामग्री, जिनमंदिर सम्बन्धी उपकरण बर्तन आदि, पुजारी का वेतन, चौकीदार आदि अन्य अजैन कर्मचारियों का वेतन, जिन प्रतिमा एवं जिनमंदिर सम्बन्धी सुरक्षा के लिए वकील का पेमेंट, जिनमंदिर सजावट, रखरखाव, वर्षगाँठ सम्बन्धी खर्चे, जिन मंदिर में लाईट - पानी आदि की व्यवस्था, आंगी आदि में हो सकता है। कल्पित देवद्रव्य का प्रयोग सभी प्रकार के देवद्रव्य में हो सकता है । देवद्रव्य के अतिरिक्त क्षेत्रों में इसका उपयोग वर्जित है। महापूजन, वरघोड़ा, प्रतिष्ठा, अंजनशलाका आदि कार्यक्रमों के निमित्त जो बोली या नकरे होते हैं उनका प्रयोग कल्पित देवद्रव्य के रूप में हो सकता है । शंका- देवद्रव्य की वृद्धि कैसे करनी चाहिए ?
समाधान— जैन शास्त्रकारों ने देवद्रव्य वृद्धि के उपाय बताते हुए कहा है कि न्यायनीति पूर्वक अर्जित धन से ही देवद्रव्य की वृद्धि करनी चाहिए। इसकी विशेष चर्चा करते हुए धर्मसंग्रह, आत्मप्रबोध, श्राद्ध विधि प्रकरण आदि में कहा गया है कि पंद्रह कर्मादान संबंधी एवं अविधि द्वारा अर्जित धन का उपयोग देवद्रव्य की वृद्धि के लिए नहीं करना चाहिए | सन्मार्ग, सद्व्यवहार, उचित आचरण द्वारा अर्जित राशि ही देवद्रव्य की वृद्धि हेतु प्रयुक्त की जा सकती है।
श्राद्ध विधि प्रकरण के अनुसार देवद्रव्य की वृद्धि हेतु उचित भाग के प्रक्षेप से या आभूषण आदि रखकर ब्याज पर दूसरों को रकम देने वाला जीव तीर्थंकर पद प्राप्त करता है।
देवद्रव्य वृद्धि के अन्य मार्ग बताते हुए कहा गया है कि देवद्रव्य की वृद्धि संघमाला आदि ग्रहण करके, इन्द्रमाल पहनकर, पहरामणी करके (दूसरों को पहनाकर), धोती आदि वस्त्र अर्पण कर, आभूषण आदि चढ़ाकर या आरती आदि अन्य विधानों के द्वारा भी की जा सकती है। जिनाज्ञा की विराधना हो उस प्रकार द्रव्य वृद्धि करने वाले अज्ञानी जीव संसार परिभ्रमण को बढ़ाते हैं ।
शंका- कुछ आचार्यों का कहना है कि इन्द्रमाल आदि के चढ़ावे असुविहित आचार्यों या यतियों के द्वारा प्रारंभ किए गए? यह कितना सत्य है?