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जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय संदर्भों में ...325
राजा ललितादित्य - राजतरंगिणी के अनुसार इन्होंने अनेक विशाल जिनमंदिर एवं जिनमूर्तियों की स्थापना करवाई। जैन राजविहार मन्दिर के निर्माण में चौरासी हजार तोला स्वर्ण का उपयोग किया था। 54 हाथ ( 81 फुट) ऊँचे जैन स्तूप का निर्माण करवाकर उस पर गरूड़ की प्रतिमा की स्थापना की थी। यह गरुड़ प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की शासनदेवी चक्रेश्वरी का वाहन है।
चंकुन मंत्री - इन्होंने तुखार में जैन मंदिर बनवाए थे। चंकुन विहार में एक उन्नत जैन स्तूप का निर्माण करवाकर उसमें स्वर्ण प्रतिमाओं की स्थापना की थी।
चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल के राज्य का विस्तार उड़ीसा से काश्मीर तक था। उसके वंशजों ने चार पीढ़ी तक राज्य किया एवं इनके अंतिम शासक राजा प्रवरसेन विक्रमादित्य के समकालीन थे। इन्होंने अपने सम्पूर्ण राज्य में जिनमन्दिरों की स्थापना की थी।
महावग्ग बौद्ध ग्रन्थ के अनुसार भगवान बुद्ध सबसे पहले धर्मोपदेश देने राजगृही नगरी में आए थे एवं वहाँ सुप्पातित्थ (सुपार्श्वनाथ तीर्थ) में रूके थे। इससे यह स्पष्ट है कि गौतम बुद्ध से पहले भी जिन प्रतिमाओं की स्थापना होती थी । कुवलयमाला के अनुसार विक्रम की पाँचवी-छठी शती में पार्वतीपुर एवं स्यालकोट (पंजाब) में हूण सम्राट तोरमाण ने अपने राज्य में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था।
परमार्हत सम्राट सम्प्रति मौर्य (राज्यकाल ई.पू. 224 से 184 ) - सम्राट अशोक मौर्य के पौत्र सम्राट सम्प्रति मौर्य का नाम जैन इतिहास में सुविख्यात है। उन्होंने भारत और भारत के बाहर अन्य देशों में सवा लाख जैन मंदिरों तथा सवा करोड़ जिन प्रतिमाओं का निर्माण करवाया। तेरह हजार पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार, अनेक दानशालाओं एवं पौषधशालाओं की स्थापना की।
महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल - वस्तुपाल - तेजपाल ये दोनों सगे भाई थे। धोलका के राजा वीरधवल के राज्य में वस्तुपाल महामंत्री तथा तेजपाल सेनापति थे। इन्होंने राज्य एवं जिनधर्म का खूब विस्तार किया जिसकी यशोगाथा इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में आज भी अमर है।
इन्होंने 1304 नये जैन मन्दिर तथा सवा लाख धातु, स्वर्ण, चाँदी, रत्नों आदि की प्रतिमाएँ बनवाई। इनके द्वारा निर्मित आबु देलवाडा के जैन मन्दिर विश्व की उत्तम कला का नमूना है। इन्होंने उत्कृष्ट शिल्पकला से युक्त 700