________________
जिनपूजा की प्रामाणिकता ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय संदर्भो में ...307 पूजा सम्बन्धी द्रव्यों का वर्णन प्राप्त होता है। शोभन पुष्पों, नैवेद्यों, वस्त्रों और स्तोत्रों से शौच एवं श्रद्धा पूर्वक देव-पूजन करना चाहिए।62
हरिभद्रीय समरादित्य कथा में भी पुष्पवृष्टि, पुष्प पूजा, धूप पूजा, दीप पूजा का निर्देश है। इनमें जल पूजा का विधान नहीं है। वहीं पंचवस्तुक में गन्ध, धूप, जल, सर्वौषधि, कुंकुम, विलेपन, सुगंधी पुष्पमाला, विविध नैवेद्य, आरती आदि से द्रव्यपूजा एवं भावपूजा में विधिपूर्वक चैत्यवंदन गायन, वादन, नर्तन, दान आदि करने का भी उल्लेख है।63 धर्मबिन्दु प्रकरण में श्रावक को जिनपूजा पूर्वक भोजन करने का उल्लेख है। भोजन का समय होने पर श्रावक जिनप्रतिमाओं की पुष्प, धूप आदि से तथा साधु एवं साधर्मिक को अन्न-पान आदि प्रदान करके उनकी पूजा भक्ति करें।64
इसमें त्रिकाल पूजा का जो विधान है उसके अन्तर्गत मध्याह्न काल में अष्ट द्रव्य से पूजा करने की विधि भी प्राचीन परिलक्षित होती है। आचार्य रविषेण ने पद्मचरित में सुगन्धी जल और स्थलज पुष्पों से पूजा करने का फल, पुष्पक देव विमान की प्राप्ति बताया है। पुष्पपूजा के अतिरिक्त सर्वोपचारी पूजा का भी निरूपण इस ग्रंथ में उन्होंने विस्तार पूर्वक किया है।5 आचार्य जीवदेवसूरि ने इन्द्रकृत जिनजन्माभिषेक के आधार पर लिखी स्नात्र विधि में सर्वोपचारी पूजा का रूप निर्दिष्ट किया है। यह स्नात्र विधि हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। इसी के आधार पर वर्तमान प्रचलित स्नात्र विधियाँ लिखी गई हैं।66
__ आचार्य श्री जिनचंद्रसरि ने संवेग रंगशाला में गृहमंदिर एवं संघ मंदिर में शक्ति अनुसार श्रेष्ठ साधकों से पंच अभिगम पूर्वक द्रव्य भाव युक्त त्रिकाल पूजा का वर्णन किया है। प्रात:काल में श्रावक सर्वप्रथम गृह मन्दिर में सामर्थ्य अनुरूप पूजा पूर्वक प्राभातिक चैत्यवंदन करें। तत्पश्चात आवश्यक गृह कार्य ना हो तो देह एवं वस्त्र शुद्धि पूर्वक परिजनों के संग श्रेष्ठ पूजा सामग्री लेकर संघमंदिर में पाँच अभिगम पूर्वक उदार भाव से पूजा करें। भोजन के समय भी घर आकर पुष्प, नैवेद्य, वस्त्र एवं स्तोत्र पूर्वक चतुर्विध पूजा करें। संध्या के समय में पुन: परमात्मा की पूजा करके सारगर्भित स्तोत्र-स्तुति पूर्वक गृह मन्दिर में चैत्यवंदन करें।67
पूजा प्रकरण जो कि उमास्वाति जी की रचना के नाम से प्रसिद्ध है पर इसकी रचना शैली के आधार पर यह तेरहवीं शती की रचना होनी चाहिए।